Friday 25 August 2017

' देश जलता रहा नीरो बांसुरी बजाता रहा ' - कालू लाल कुषमी का जनवरी, 2006 का लिखा लेख



   ' देश जलता रहा नीरो बांसुरी बजाता रहा '
     

                     कालू लाल कुषमी






      आज हमारे सामने समाज का जो स्वरूप आ रहा है। उसमें एक तरफ तो हमारी सरकार दावे कर रही है कि हमारा देश महाशक्ति बनने के साथ-साथ उन्नति की ओर बढ़ता जा रहा है और अब गरीबी भी लगातार कम हो रही है पर वास्तविकता में कुछ और ही है। अभी कुछ महीने पहले की दुर्घटना है । गुड़गांव में मजदूरों को किस तरह मारा था हमारी राष्ट्र भक्त पुलिस ने एक विदेशी कंपनी होंडा के हित में । हमारी सरकार हमेशा जांच कर करवाती हैं । वैसे देखा जाए तो जांच कराने की तो एक परंपरा से बन गई है । गुजरात जैसा हादसा हो या इंदिरा गांधी के समय के दंगे हो या कोई और घोटाला हो, जांच के नाम पर समिति गठित कर मामले को ठंडे बस्ते में डालकर हमारी सरकारों ने पचा लिया है। केवल अपना भला देख कर विरोध किया जाता है।सिख दंगों को लेकर प्रधानमंत्री अपनी सरकार चलाने के लिए माफी मांग लेते हैं। मामला उलट जाता है। कितने लोगों को मारना और बदले में माफी मांगना । क्या यहीं न्याय है...? गरीब का कोई मरे तो कोई बात नहीं , अमीर का कोई मरे तो सारी संसद में हड़कंप मच जाती है ..?

      अभी गोहाना कांड की बात करें तो एकदम साफ है। दलितों की बस्तियां जलाई गई । पुलिस प्रशासन जनता रहा पर कुछ नहीं किया । प्रधानमंत्री ने शोक संदेश भेज दिया और बात खत्म हो गई। एक दिन वह था जिस दिन हिंदू धर्म के महान आचार्य को पुलिस ने गिरफ्तार किया और जेल में डाल दिया। वह इस अपराध में कि वह हत्यारा है। अपराधी अपराधी होता है, वह कोई भी हो। उस दिन सभी लोग भोंक उठे। अटल बिहारी वाजपेई , अडवाणी , सुदर्शन सभी ने कहा कि वह तो हमारे अस्मिता पर हमला है और हम इसको बर्दाश्त नहीं करेंगे। यह तो महान पुरुष है ।  इन पर कोई कानून लागू नहीं होता । इस तरह की बयानबाजी करने लगे तब और अब में अंतर कौन पैदा कर दिया। गोहाना कांड पर कथादेश में कुछ तस्वीरें और कुछ आलेख छापे हैं। वह स्पष्ट संकेत करते हैं कि गुजरात कांड की तरफ सोची समझी रणनीति के तहत हुआ है । पुलिस पहले ही जानती थी पर उसने कुछ भी नहीं किया।

     मंच पर भाषण देने वाले हमारे नेता और नौकरशाह किस तरह से अपनी परंपरा को बनाने में लगे हैं।खासकर अगर बात करें तो सत्ता होती ही क्रूर है। वह अपने आसपास ऐसे तगड़े खंबे खड़े कर देती है कि उनको तोड़ना बहुत कठिन होता है। अरबों में खेलने वाले मंत्री संत्री क्या सोचेंगे, गरीबी के बारे में उनको तो अपनी पड़ी रहती है।

      1953 में ब्रेख्ट ने एक कविता लिखी थी जो आज बहुत ही प्रासंगिक लगती है -

" 17 जून के विद्रोह के बाद
  लेखक संघ के मंत्री ने एक परचा बंटवाया
  जिसमें कहा गया कि जनता ने,
  सरकार का विश्वास खो दिया है।
  अब वह उसे कठिन परिश्रम से ही पा सकती है।
  क्या  सरकार के लिए सरल नहीं होगा कि
  वह जनता को भंग कर दे
  और दूसरी जनता का चुनाव कर ले "

    खासकर जनता के प्रतिनिधि ही जनता से खेल रहे हैं। एक तरफ तो बाजार जैसा जाल सारी दुनिया को अपने चंगुल में फंसाता जा रहा है और अंदर ही अंदर चूसता जा रहा है । उस पर हमारे सेवक कहलाने वाले नेता अपना गेम भर कर रहे हैं । हर पार्टी अपनी तथाकथित जनता की हीन साधना का राग अलापती है और कुर्सी की ताक में रहती है।
 
    कुल मिलाकर किसी भी देश का विकास वहां की सरकार के हाथों में होता है क्योंकि सरकार की नीतिया लागू करती है वही देश एक देश के आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की दिशा तेज होती है। अगर हमारी व्यवस्था सधी हुई नहीं होती है तो हमारा समाज एक दम सही होगा।

 " लोकतंत्र के पांव में नष्ट होते मेरे देश
   हमें कितना हो सकता है
   तुम्हारे दुखों का इल्म...?
   हम तो अभी ढूंढ रहे हैं
   पशु और इंसान में फर्क
   हम कुत्तों में से जूएं पकड़ते हुए
   सीने में पाल रहे हैं
   सर्वशक्तिमान की रहमत
   हमारे रोज की फिल्मों की भीड़ में गुम हो गई है
   वह आदर्श जैसी पवित्र चीज
   हम तो उड़ रहे आंधियों में
   सूखे हुए पत्तों की तरह "

       लोकतंत्र हमारा है या चंद  लोकतंत्र के नाम पर अपनी कोठिया भरने वालों का। सब कुछ जनता के सामने हैं। जिम्मेदार कौन है। यह भी सामने हैं और जिम्मेदार क्यों है, यह भी सामने हैं। भारत की खोज अभी बाकी है। मनुष्य की खोज अभी बाकी है। आपसी षड्यंत्र की रेखाओं के बीच गुम हो गया है वह पल जहां आदमी आराम से सांस ले सके। बस उसी पल की खोज में हम और आप.......

साभार - इतिहासबोध

Thursday 24 August 2017

" यमन जल रहा है " - सुहैल रिज़वी



                   " यमन जल रहा है "

                        - सुहैल रिज़वी -









        अरब जगत के सबसे गरीब देशों में गिना जाने वाला देश यमन जिसकी कुल आबादी का 82 प्रतिशत हिस्सा आज भयावह जीवन जीने को मजबूर है। यमन की राजनीतिक अस्थिरता का फायदा उठा कर बाहरी तत्वों द्वारा यमन को मानवीय संवेदनाओं का कत्लगाह बना दिया गया है।

         दक्षिणी यमन में अमेरिकी ड्रोन लगातार आम नागरिकों को निशाना बनाकर बम बरसा रहे हैं।  सऊदी अरब और उसके गठबंधित देशों द्वारा भी लगातार बमबारी की जा रही है जिसका धनात्मक उदाहरण तब देखने को मिला जब कुछ समय पहले शोक सभा में शामिल होने आए लोगों पर बम बरसाए गए जिसमें 140 से ज्यादा लोगों को जान गंवानी पड़ी और 500 से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हो गए । संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून के अनुसार " यमन आग में जल रहा है और सऊदी गठबंधन लगातार स्कूल-अस्पताल और मस्जिदों पर बम बरसा रहा हैं। "
 
       अरब जगत के सबसे निर्धनतम देश यमन की आर्थिक स्थिति पूरी तरह से आयात पर निर्भर। 70 फ़ीसदी इंधन, 90 फी़सदी खाद सामग्री और 100 फीसदी दवाइयां दूसरे देशों से आयात करता है लेकिन इस पर भी अमेरिकी नेवी द्वारा यमन के तटीय क्षेत्रों को पूरी तरह से सील कर दिया गया है जिसके कारण अपनी मूलभूत जरूरतों से भी यमन को भारी दिक़्क़तो का सामना करना पड़ रहा है ।

    यह स्थिति कितनी भयावह है। इस बात का अंदाजा यूनेस्को की रिपोर्ट से लगाया जा सकता है कि 14.1 लाख लोग अपनी आधारभूत स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है तथा इतनी ही लोग खाद्य सामग्री के अभाव में जीवन जीने को मजबूर है और लगभग ढाई लाख लोग अपने घर को छोड़ने पर विवश है।

        संयुक्त राष्ट्र संघ के आकलन के अनुसार 26 मार्च २०१५ से अब तक दस हज़ार से ज्यादा लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा जिसमें बड़ी संख्या में बच्चें और महिलाएं शामिल थी और 2016 की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि यमन में सऊदी अरब द्वारा प्रतिबंधित क्लस्टर बम का इस्तेमाल किया गया है जो कि जिनेवा एक्ट का खुला उल्लंघन है दूसरी ओर ह्यूमन राइट्स वॉच नामक संगठन ने भी अपनी एक रिपोर्ट में सऊदी अरब को बड़े पैमाने पर हथियार बेचने के लिए यूएस UK और फ्रांस की आलोचना की है।

    रिपोर्ट में कहा गया है कि यमन में UK निर्मित लंबी दूरी की मिसाइल क्लस्टर बम जैसे आदि हथियारों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया है जिसके कारण हजारों लोगों की जान गई। सऊदी अरब के गठबंधन में शामिल होने वाले प्रमुख देश मिस्र, पाकिस्तान , कतर और तुर्की  हैं। अकेले सऊदी अरब के हिस्सों में 100 से ज्यादा अत्याधुनिक तकनीकी से लैस लड़ाकू विमान का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस गठबंधन के सदस्य देश लड़ाकू विमानों, पानी के जहाज व थल सेना के द्वारा यमन पर आक्रमक रूप से इख़्तियार किये हुए हैं। यही नहीं अफ्रीकी देश सूडान को सऊदी अरब और कतर ने साल 2015 में दो करोड़ डॅालर की आर्थिक सहायता दे कर इस गठबंधन का सदस्य बनाया।

     संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अगस्त 2016 में विद्रोही और सऊदी गठबंधन के बीच शांति वार्ता स्थापित करने का जरूरत प्रयास किया गया बताओ को लेकिन इस वार्ता को सबसे बड़ा सबसे बड़ा झटका जब लगा जब सऊदी अरब ने यमन पर हवाई हमलों को बंद नहीं किया इस पूरे परिदृश्य मैं सबसे ज्यादा आम नागरिकों को नुकसान झेलना पढ़ रहा है अगर संयुक्त राष्ट्र संघ में जल्द ही कोई कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो स्थिति और भी अमानवीय हो जाएगी।

Tuesday 22 August 2017

मानसिकताओं का मायाजाल और हमारी सरकारें


            मानसिकताओं का मायाजाल                             और हमारी सरकारें

                      

                      -मनोरंजन कृष्णा-




     एक ऐसे वक्त जब विज्ञान अपनी महत्ता और श्रेष्ठता को साबित कर चुका है। पूरी दुनिया नित्य नए तरक़्क़ी की ओर विकासशील है। हिंदुस्तान हर रोज़ इडियट बॉक्स और 180 देशों की सूची में 136 वें नम्बर पर रहने वाली मीडिया के सहारे भाँति- भाँति के मायाजाल में उलझ जाता है , यहाँ असम, गुजरात की बाढ़ में डूबते लोग,मेधा पाटकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन, लगातार सीवर में काम करने वाले मजदूरों की मौत के बजाय , सुर्खियों में क्या है...? कल चोटी काट ली, तो आज अमित शाह और अहमद पटेल में कौन चाणक्य ?  जैसे मुद्दे चल रहे हैंअःऔर ये मुद्दे जैसे ही ख़त्म होते हैं , पूरा फ़ोकस हिन्दू बनाम मुस्लिम वाले मुद्दों पर कर दिया जाता है, जबकि सच ये है कि एक आम जनता कभी भी लड़ाई की बात सोचती ही नहीं हैं।

    कई दफ़ा कह चुका हूँ । हमसे ही हमारा समाज है। मगर कुछ लोग सोचते हैं कि हम ही तय करते हैं कि हमारा समाज कैसा होगा। जैसें कि किताबें सदा से सरकार के लिए अपने हित साधने का माध्यम रही है। हर सरकार सत्ता काबिज़ होने पर किताब का पुनर्लेखन करती है जिससे कि पुस्तकें सरकार के छुपे हुए एजेंडा ( hidden agenda) को अच्छी तरीके से लागू कर सके और पढ़ने वाले के दिमाग को सरकार का समर्थक बना दे।
 
      अकबर महान को टेक्स्ट बुक से निकाल फेंकना चाहते हैं। शायद इन्हें मालूम नहीं , अकबर ने हिंदुस्तान को एक करने के लिए अपना धर्म छोड़ ' दीन-ए-इलाही' धर्म बना लोगों को एक करने की कोशिश की। बच्चों को ये बताना कि फ़लां मुसलमान शासक ने कत्लेआम किया, फ़लां मुसलमान शासक मंदिर लूट गया। यदि बताना है तो इसे इस तरीके से बताया जाए कि अगर वहाँ तुम होते तो क्या प्रयास कर सकते थे ? ऐसी घटना इएलिये बताई जाए कि फिर ऐसी नौबत ना आए। लेकिन यहाँ तो माज़रा ही उल्टा है, पूरी कोशिश है कि बच्चा एक दूसरे कौम के लिए नफरत ही सीखे।इसकी नींव विद्यालय में डाल दी जाती है जो कॉलेज से लेकर समाज,धर्म हर जगह व्याप्त है। हमारे समाज ने यथार्थवादी प्रश्न को पागलपन माना और आध्यात्मिक प्रश्न को विद्वता एवं श्रेष्कर।

      एक दूसरे के प्रति नफरत की व्याख्या करने में टेलीविजन और सोशल साइट्स के हद से ज्यादा दखलंदाजी से बहुत बदलाव आया है। खासतौर पर कॉरपोरेट न्यूज़ चैनल जिनका मक़सद पैसे बनाने के साथ अपना निज़ी हित साधना है जिनमें इनका प्रमुख मक़सद है - इंसान को इंसान से लड़वाना। चाहे वो धार्मिक आधार पर लड़वाना हो या एक धर्म के अंदर के विभिन्न जातियों को आपस में लड़वाना। टाइम्स नाउ की नाविका कुमार से जब एक डिबेट में एक प्रतिनिधि ने बच्चों की मौत से जुड़े सवाल पूछे तो उन्होंने कहा कि  ये डिबेट वंदे मातरम पर है और आप असली मुद्दे से भटकाना चाहते हैं। इससे सनसनी खेज कथित पत्रकारों की संवेदनशीलता का पता लगा सकते हैं। अब जमाना बदल गया। जब लोग दिल से पत्रकार होते थे। अब दिमाग से लोग पत्रकार बन रहे हैं । अब हर रिपोर्टिंग नफे-नुकसान के आकलन के साथ किया जा रहा है हिंदुस्तान में सारे के सारे निज़ी चैनल हैं जिनका अपना निज़ी मक़सद है। प्रिंट मीडिया इनके राइटिंग पार्टनरस बने हैं। फिर इनसे हम उम्मीद ही क्यों सच का रखें और जब उम्मीद नहीं तो इन्हें देखे पढें और सुने क्यों ?

     हिंदुस्तान में समाज के मानसिकता को इस तरीके से निर्मित किया गया है कि लोग हर छोटी से छोटी घटना के लिए नेता को ज़िम्मेदार मानते हैं। लेकिन  ये बात कुछ हद तक ही सही है क्योंकि यहाँ हर घटना के लिए किसी ना किसी अधिकारी की भूमिका जरूर तय होती है। लोक सेवक अधिकारी के हस्ताक्षर के बगैर एक भी रुपया निकाला नहीं जा सकता है । साथ ही ये रुपये किस लिए निकाले जा रहें हैं इसका विस्तृत व्योरा तय होता है, इस मद का कहाँ - कहाँ प्रयोग होना है, कैसे खर्च होने है सब कागजों पर तय होता है। किस किस अधिकारी की भूमिका क्या-क्या होगी ये बकायदे अच्छे से तय होते हैं।
 
       अब रही बात ये अधिकारी अच्छे पढे लिखे होते हैं। इनमें से ज़्यादातर UPSC, SSCऔर राज्य PCS से चुन कर आते हैं। इनके क्षमता,प्रतिभा पर कभी कोई उँगली नहीं उठा सकता क्योंकि ये हिंदुस्तान के बेहतरीन खतरनाक दिमागों में से एक होते हैं। जैसे ही ये पद संभालते हैं। पहले दिन ही मारे लोभ का इनका ईमान डगमगा जाता है। भ्रष्टाचार श्रृंखला में ये जल्द ही डूब जाते हैं। लेकिन चूँकि होते हैं दिमाग वाले लेकिन एकदम डरपोक । जरा सी गीदड़ भभकी पर इनकी साँसे फूल जाती हैं तो तुरंत भेजा का इस्तेमाल करते हुए नेताओं के साथ मिलीभगत करते हैं और मिल के मलाई डकारते हैं। लेकिन जैसे ही भ्रष्टाचार से लेकर जबाबदेही की बात आती है ये कन्नी काटते हुए बिल में दुबक लेते हैं । पूरा का पूरा इल्ज़ाम नेताओं के मत्थे आता है।

       मैं ये कतई नहीं कह रहा हूँ कि नेता भ्रष्टाचारी, लोभी नहीं हैं या उनकी जबाबदेही नहीं है लेकिन उस अधिकारी और लोकसेवक से कम है। यहाँ सबसे गौर करने वाली बात है कि जो कुर्सी पर बने अधिकारी हैं वो लोक सेवक हैं जिन्हें प्रशिक्षण के साथ साथ तमाम तरीके बताए जाते हैं कि आपको लोगों से किस प्रकार कनेक्टेड रहना चाहिए। किस प्रकार आप लोगों की सेवा कर सकते हैं। ये नाम के तो लोकसेवक होते हैं लेकिन ये किसी आम नागरिक से अपने चैंबर में मिलना तक पसंद नहीं करते हैं। जबकि नेता भले ही किसी भी दल का हो कितना ही बड़ा क्यों ना बदमाश हो , तत्काल आपके दुःख में जरूर शामिल होते हैं।
 
       मैने देखा है कई छुटभैये नेताओं को भी जो आपकी मदद के लिए जान की बाजी तक लगा देते हैं वो भी बिना किसी धार्मिक,जातिगत भेदभाव के और बड़े से बड़े लोकसेवक अधिकारी को मुँह फेरते देखा है। जो छुटभैये होते हैं वो हमारे ही बीच के होते हैं और आगे भी रहना होता है तो ये आम लोगों से ज्यादा जुड़े होते हैं वनिस्पत उन लोकसेवकों के जिनका कर्त्तव्य और उद्देश्य ही होता है लोगों की भलाई करना।

     असल में कह सकते है कि भारतीय गणतंत्र का ढाँचा इस तरीके से बना हुआ है अगर यहाँ कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री ना भी रहे तो देश वैसे ही चलता रहता है। इसमें कोई शक नहीं कि लोकसेवक देश के लिए जो योगदान देते हैं वो बहुत महत्वपूर्ण है और इनके कार्य की सराहना की जानी चाहिए, लेकिन बदले में जो इन्होंने देश को छला है वो बहुत ज्यादा है। ये लोकसेवक नीति निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं और बदले में एक मोटी कीमत (वैध और अवैध), सुविधा वसूलते हैं। PMO में बॉस भले ही PM हो लेकिन इन अधिकारियों को किसी का यू टर्न कराने में मिनट भी नहीं लगेगा। जैसे कि मनरेगा जैसी लूट की योजना को चालू रखना, आधार जैसे जासूसी कार्यक्रम को धन विधेयक बना कर चलाते रहना ।

    हमारी सरकारें भी यहीं चाहती है कि कोई ना पढ़े। गर पढे भी तो सच ना जाने और प्रश्न तो कतई ना हो क्योंकि इन्हें इसी तरह के एक अच्छा, तेज़ हस्तलेखन करने वाला उम्मीदवार चाहिए जिसने अपने अंदर बहुत सारी सूचना एकत्रित कर ली हो और जो सही समय पर कॉपियों पर उल्टियां कर सके।

      ऐसे में हमारा ये दृढ़निश्चयी समर्पित प्रयास होना चाहिए कि हम पढ़ेंगे और ऐसे पढ़ेंगे कि तुम्हारा मक़सद कभी सफल ना हो सके।


Sunday 20 August 2017

त्रिलोचन शास्त्री पर अनिल जनविजय का आलेख - प्रेम बतरस और कविताई- याद त्रिलोचन की


       
        आज हिंदी साहित्य के नहीं जनता के कवि की  जन्म शताब्दी हैं । इस अवसर पर अनिल जनविजय का त्रिलोचन शास्त्री पर लिखा एक पुराना आलेख हुदहुद पेश करने जा रहा है - 


       प्रेम बतरस और कविताई- याद त्रिलोचन की
       आलेख : अनिल जनविजय


       त्रिलोचन जी नहीं रहे। यह ख़बर इंटरनेट से ही मिली। मैं बेहद उद्विग्न और बेचैन हो गया। मुझे वे पुराने दिन याद आ रहे थे, जब मैं करीब-करीब रोज़ ही उनके पास जाकर बैठता था। बतरस का जो मज़ा त्रिलोचन जी के साथ आता था, वह बात मैंने किसी और कवि के साथ कभी महसूस नहीं की।
       त्रिलोचन जी से बड़ा गप्पबाज़ भी नहीं देखा। गप्प को सच बना कर कहना और इतने यथार्थवादी रूप में प्रस्तुत करना कि उसे लोग सच मान लें, त्रिलोचन को ही आता था। नामवर जी त्रिलोचन के गहरे मित्र थे। वे उनकी युवावस्था के मित्र थे, इसलिए उनकी ज़्यादातर गप्पों के नायक भी वे ही होते थे। शुरू-शुरू में जब उनसे मुलाकात हुई थी तो मैं उनकी बातों को सच मानता था लेकिन बाद में पता लगा कि ये सब उनकी कपोल-कल्पनाएँ थीं। बाद में मैं भी उन्हें ऐसी ही कहानियाँ और किस्से बना-बना कर सुनाने लगा। हिन्दी के चर्चित कवियों, लेखकों और आलोचकों को लेकर वे किस्से होते थे। जिनमें दस से पन्द्रह प्रतिशत यथार्थ का अंश रहता था, बाक़ी कल्पना की उड़ान। बस, इसी बात पर मेरी उनकी दोस्ती बढ़ने लगी और हम दोस्त हो गए।
     वे मुझ से पूरे चालीस साल बड़े थे। लेकिन उनका व्यवहार मुझसे हमेशा ऎसा रहा, मानो मैं ही उनसे बड़ा हूँ। उन दिनों आदरणीय अशोक वाजपेयी मध्यप्रदेश सरकार में संस्कृति सचिव थे और यह समझिए कि भारत भर के कवियों, चित्रकारों, नाटककारों, नर्तकों, संगीतकारों--- सभी की मौज हो गई थी। जिन्हें भारत के सरकारी हल्कों में कोई टके को नहीं पूछता था, हिन्दी के उन लेखकों को, प्रतिष्ठित लेखकों को और कलाकारों को मध्यप्रदेश सरकार द्वारा मान-सम्मान दिया जाने लगा। भोपाल में कलाओं के केन्द्र के रूप में अशोक वाजपेयी भारत-भवन का निर्माण करा रहे थे। तभी वाजपेयी जी ने एक आंदोलन-सा चलाया---"कविता की वापसी। मध्यप्रदेश का पूरा सरकारी संस्कृति विभाग कविता को वापिस लाने में जुट गया। वाजपेयी जी ने मध्यप्रदेश के हिन्दी के कवियों और हिन्दी के प्रतिष्ठित कवियों के कविता संग्रहों की सौ-सौ प्रतियाँ खरीदने की घोषणा कर दी। बस, फिर क्या था। प्रकाशकों की बन आई। प्रकाशकों ने मध्यप्रदेश के कवियों को ढूंढना शुरू किया और हर छोटे-बड़े कवि का कविता-संग्रह छप कर बाज़ार मे आ गया। लेकिन 'कविता की वापसी' का फ़ायदा यह हुआ कि हिन्दी के उन बड़े-बड़े कवियों के संग्रह भी छपे, जो मध्यप्रदेश सरकार द्वारा की जाने वाली उस खरीद में आ सकते थे।
     संभावना प्रकाशन, हापुड़ ने भी बहुत से कवियों को छापने की योजना बनाई। उन्हीं में बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन जी के कविता-संग्रह भी थे। मैं उन दिनों हिन्दी में एम.ए कर रहा था और बेरोज़गार था। संभावना प्रकाशन के मालिक और हिन्दी के बेहद अच्छे और प्रसिद्ध कहानीकार भाई अशोक अग्रवाल ने मेरी मदद करने के लिए पाँच कविता-संग्रहों के प्रोडक्शन की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी। उनमें त्रिलोचन जी का कविता-संग्रह 'ताप के ताये हुए दिन' और बाबा नागार्जुन का कविता-संग्रह 'खिचड़ी-विप्लव देखा हमने' भी शामिल थे। त्रिलोचन जी का कविता संग्रह करीब तेईस साल बाद आ रहा था। इससे पहले 1957 में उनका 'दिगंत' छपा था। 1957 मेरा जन्म-वर्ष भी है। संयोग कुछ ऎसा हुआ कि जिस दिन त्रिलोचन जी का कविता-संग्रह छप कर आया उस दिन मेरा जन्मदिन था। तो मैं बाइन्डर के यहाँ से "ताप के ताये हुए दिन' की पहली प्रति लेकर त्रिलोचन जी के पास पहुँचा। क़िताब अभी गीली थी और उसकी बाइन्डिंग पूरी तरह से सूखी नहीं थी।
          त्रिलोचन जी पुस्तक देखकर प्रसन्न हुए। उनके मुख पर मुस्कराहट छा गई। बड़ी देर तक वे अपने उस संग्रह को उलटते-पलटते रहे। फिर बोले-- पूरे तेईस साल बाद आई है क़िताब। मैंने कहा-- जी हाँ, मैं भी तेईस साल का हूँ। आज ही मेरा जन्मदिन है। मेरे जन्मदिवस पर आपको मिला है यह उपहार। लेकिन आपका जन्मदिन भी तो आने वाला है जल्दी ही। यह समझिए कि आपके जन्मदिवस पर आपको यह उपहार मिला है। त्रिलोचन जी हँसे अपनी मोहक, लुभावनी हँसी। फिर बोले---चलिए, इस ख़ुशी में आपको पान खिलाते हैं। एक पंथ दो काज हो जाएँगे। आपका जन्मदिन भी मना लेंगे और इस क़िताब के आगमन की ख़ुशी भी मना लेंगे।
        हम लोग पान वाले के ठीये पर पहुँचे। पान खाया। उन्होंने कुछ देर पान वाले से गप्प लड़ाई। उसके भाई का, बच्चों का और घरैतन का हाल-चाल पूछा। उसके बाद हम लोगों ने वहीं पास के दूसरे ठीये पर जाकर चाय पी। चाय पीने के बाद हम दोनों उनके दफ़्तर में वापिस लौट आए। शाम को मुझे किताबों का बंडल लेकर हापुड़ जाना था। मैं ज़रा जल्दी में था। मैंने त्रिलोचन जी से विदा माँगी। त्रिलोचन जी ने कहा-- एक मिनट रुकिए। उसके बाद उन्होंने 'ताप के ताये हुए दिन' की वह पहली प्रति उठाई और उस पर लिखा-- 'अनिल जनविजय को, जो कवि तो हैं ही, बतरस के अच्छे साथी भी हैं।' त्रिलोचन जी का वह कविता-संग्रह इस समय भी जब मैं उन्हें स्मरण कर रहा हूँ, मेरे सामने रखा हुआ है। उस संग्रह पर सबसे अंतिम पृष्ठ पर मेरी लिखावट में छह पंक्तियाँ लिखी हुई हैं। उन्हीं दिनों कभी लिखी थीं मैंने। वे काव्य-पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :
        हिन्दी के संपादक से मेरी बस यही लड़ाई वो कहता है मुझ से, तुम कवि नहीं हो भाई तुम्हारी कविता में कोई दम नहीं है जनता की पीड़ा नहीं है, जन नहीं है इसमें तो बिल्कुल भी अपनापन नहीं है नागार्जुन तो है, पर त्रिलोचन नहीं है।
साभार : गद्य कोश ।


Friday 18 August 2017

" बोलो मत स्त्री " - मैत्रेयी पुष्पा का " योनि-शुचिता " ( Vaginal purity ) पर 2006 में लिखा एक लेख


                    " बोलो मत स्त्री "

                        

                       " मैत्रेयी पुष्पा "


 



         हमारे समाज में मनुस्मृति द्वारा निर्धारित किया हुआ चलन विशेष तौर पर स्त्रियों के लिए आज भी लागू हैं। " पिता रक्षतु कौमार्य, भर्ता यौवने रक्षतु " - अर्थात पिता बेटी की रक्षा कुंवारेपन में करता है और यौवन में पति । इसके बाद पुत्र संरक्षक हो जाता है, स्त्री कभी भी आज़ाद नहीं हैं। इसमें क्या शक है , स्त्री को हमने कदम-कदम पर कटघरों में कैद पाया है। यहां में सिर्फ उसके जीवन की शुरूआत अर्थात कौमार्यवस्था की बात करूंगी ।

       इन दिनों कुंवारा अपन मीडिया पर छाया रहा । टेलीविजन के हर चैनल और विभिन्न अखबारों के पन्नों पर तमिल अभिनेत्री खुशबू का बयान सरसराता रहा हैं।उसके पक्ष में विश्वप्रसिद्ध टेनिस स्टार सानिया मिर्जा उपस्थित रही। अपने कुंवारेपन में यौन संबंध स्थापित करने वाली लड़की के पक्ष में बयान क्या दिया , मीडिया में भूचाल आ गया और अपने प्रभाव से TV ने समाजिक पर्दे को बुरी तरह हिला दिया । जैसे कह रहा हो, याद करो अपने पौराणिक प्राचीन पूर्वजों को, उनके नियम, कानून, कायदे को । नहीं याद करोगी तो समाज के शुचिता के ठेकेदार तुम्हारी अकल ठिकाने कर देंगे ।राजनीतिक पार्टियां रंग लेने लगी और लगे हाथों तमिल समाज ने खुशबू फिल्म अभिनेत्री पर अधिकारों की बरसात होने लगी। उसके बयान पर थूका जाने लगा ।  सानिया को डराया गया। स्त्री का मुंह बंद करने के लिए यह यही कारगर उपाय है । सचमुच खुशबू और सानिया भूल गई की जेट और कंप्यूटर युग में जीने वाली स्त्रियां हैं और भारतीय आधुनिकता का यह भोंडा पाखंड है ।यदि ऐसा ना होता तो विवाह पूर्व पुरुषों के लिए भी ब्राह्मचर्य परीक्षण का कोई विधान शुरू होता । जैसा कि लड़की के लिए " अक्षत योनि " होना, विवाह की कसौटी माना जाता है ।

 
      विडंबना यह है कि आधुनिक से आधुनिक स्त्री खुद को कुंवारेपन की कसौटी पर खरा स्थित करना चाहती हैं। क्यों चाहती है इसका कारण दबाव भी है जिससे पवित्र संस्कारों ने अपनी सत्ता कायम रखने के लिए पैदा किया है। योनि शुचिता डिगनेवाली लड़की के सिर पर पाप और अपराध का सेहरा बांधकर पुरुष वर्चस्व न्यायधीश की मुद्रा में आ जाता है और उस तथाकथित  कुलक्षणी को देह मंडी का रास्ता दिखाने लगता है या उसे समाज से बहिष्कृत करके अपने ही खानदानी गौरव का अनुभव करते हैं।

     आश्चर्य नहीं कि अपने मामूली बयान से खुशबू अपराध बहुत से घिर गई और सानिया बयान बदलने लगी । दुनिया हंसी कि जाओ बिटियां दुनिया फतेह करो । हां, हम से उलझना जरा सोच समझकर क्योंकि तुम स्त्री हो और हम इस तरीके को तोड़ने के लिए जिंदा है।खुशबू और सानिया मामूली स्त्री नहीं मगर दोनों की मानसिक हालत को किस कदर कसा गया। यह हम औरतों ने कभी सोचा है ..? नहीं सोचते हम क्योंकि समझ बैठे हैं कि सोचने का काम हमारा नहीं , हमें तो केवल बताए गए नियम पालन करने हैं और नियम है कि भावी पति के लिए " अक्षत योनि " रहना है । यह तर्क वितर्क के परे ईश्वरीय आदेश की तरह है लेकिन मेरा यह कहना है कि पुरुष वर्ग ने स्त्री को वही घेरा है जहां पर कुदरती तौर पर पकड़ी जा सकती है। मसलन कौमार्य भंग की निशानी स्त्री शरीर से घटित होती है। यौनाचार का आचरण उसका गर्भाश्य बयान करता है। यह प्राकृतिक सत्यापन ही सजा का सबब बनता है , यही हमारे समाज की शर्मनाक विडंबना है । नतीजन स्त्री दंड भोगती है।

     दंड, सज़ा का सिलसिला , मगर कब तक ..? यह क्रुर और अन्यायपूर्ण विधान अब पलटना चाहिए ।विवेकशील और पढ़ी-लिखी स्त्रियां अपनी देहिक सच्चाई को अच्छी तरह समझती है। अफसोस कि वह परिपक्वता और साहस नहीं दिखा पाती । विवाह की शर्त लड़की का " अक्षत यौनी " होना है। कैसा मज़ाक है यह ..? होना चाहिए कि विवाह के बाद अपनी व्यवहारिक क्षमता और आर्य-कुशलता से पेश आना, कंधे से कंधा मिलाकर जीवन का विकास करना । कहना चाहिए कि आप हमें योनिशुचिता विहिन ठहरा कर अयोग्य और अकर्मण्य भी ठहरा देते हैं । आप अन्यायी और अत्याचारी है। हम हौसला रखते हैं । घुटने टेकने के लिए नहीं बने । आंखें झुकाकर सुनने से अच्छा है बेबाकी से बोलना।



    हमारे इस तरह बोलने को बेशर्मी ठहराया जाएगा। हमें मालूम है लेकिन यह पूछने से बाज़ क्यों आए कि पुरुषों के पास अपने लिए योनि-शुचिता का क्या सबूत है....? वह सुहागसेज पर अपने को ब्रह्मचारी किस तरह साबित करेंगे । विज्ञान और चिकित्सा का मखौल देखिए कि वहां भी स्त्री की योनि परीक्षा को ही विषय बनाया जाता है । पूछा जाए कि यह छूटने किसने दी ..? कौमार्य की परीक्षा अमानवीय है , भले वह बलात्कार के मामले में हो, इस मामले में लड़की को न्याय से ज्यादा बदनामी ही मिलती है । यह घोषित कौमार्यविहीन अभागी  आजन्म कुंवारे रहने या किसी पुरुष की रखेल हो जाने के लिए बाध्य कर दी जाती है। तय है कि " वर्जिनिटी स्त्री " के लिए ऐसा बर्बर कठघरा  है जो उसके वजूद को विवाह से पहले ही अपने शिकंजे में कर लेता है । कारण कि पिता कन्यादान पर शपथ लेता है कि वह अपनी बेटी को कुंवारी योनि के साथ समर्पित कर रहा है । क्या सचमुच कौमार्यभंग चोरी, डकैती, लूटपाट, भ्रष्टाचार और दंगाई खून खराबों से ज्यादा घृणास्पद है ...? जबकि ऐसे क्रुर ज़ुल्मों के कर्ताधर्ता परिवार के लिए नत्याज्य बनते न घृणा के पात्र ।

     बिछड़ने के बाद इज्जत का बांस स्त्री की पीठ में ही गाड़ा जाता है जिस पर परिवार नाम की झंडी फहराती है। सच नहीं बता पाती , सहमी-सहमी सी रीति रिवाजों को ढोती हुई पुरुषों के हक और सुविधाओं के लिए बोलती रहती है । एक बार तो पूछ ले कि महाभारत जैसे महान आख्यान में कुंती ने कर्ण कैसे पैदा किए थे ..? निश्चित ही उसका पिता सूर्य नहीं था जो पूर्व में उदित होता है और पश्चिम आस्ताचल हो जाता है। आखिर किस पुरुष का नाम था सूर्य..? द्रोपदी को पंचकन्याओं में कैसे गिनते हैं जिसके पांच पति थे आज पांच पुरुषों के साथ सहवास करने वाली को आप क्या कहेंगे या फिर इसका ही जवाब मांगे कि जिन पश्चिम देशों के आप  मुरीद है वहां " वर्जिनिटी " का क्या हाल है...?

Thursday 17 August 2017

ज़ीनत मनसूरी का लेख - हम औरत है ..?

               

                       हम औरत हैं....?                             


    लेखक - ज़ीनत मनसूरी


   




     
   
     


     
       


       एक औरत होने के बावजूद मैं मर्द और औरत को बराबर मौका देती हूँ कि आप दोनों अपने मन मे एक लंबी रेखा खीचिए और दौड़ लगाइये । दौड़ने के मार्ग में आप को बताते चलती हूँ  कि आपको अपनी दौड़ उतरी हुई विक्षोभ से शुरू करनी है और वहाँ से दौड़ते हुए आना है - आधुनिक अमेरिका और फिर बेहतर ज़िन्दगी की छटपटा । लेटिन अमेरिका के कीचड़ से सने मार्गो से होते हुए , विकसित और आधुनिक यूरोप का एक चक्कर लगा कर अफ्रीका के  शोषण के घाव से बहते मवाद को तेर कर एशिया के चक्कर लगाने हैं ।
     
       इस बीच जापानी सैनिको द्वारा कोरिया की औरतों के साथ जो किया गया, उसकी पूरी जानकारी जुटानी है । खाड़ी देशों की औरतों के वास्तविक हालातों के साथ-साथ अफगान से होते हुए पाकिस्तान और फिर अपनी पसंद के नाम वाले हिन्दुस्तान या भारत या फिर इंडिया में प्रवेश करना है । उसके बाद मेरे लिखे को आप दोनों ने जो दौड़ के दौरान अनुभव किया है । तथ्यों के आधार पर काटना और बताना कि बाकी मुल्कों के मुक़ाबले हिंदुस्तान में औरतों को ज़्यादा हकूक प्राप्त हैं...? यह भी तर्क देना कि यहां की औरतें-लड़कियां काफी पहले से ही सशक्त है और बताना कि रज़िया सुलतान ने  कैसे अपने दम पर सत्ता हासिल की थी और ये ज़रूर छुपा लेना कि हमारे यहाँ हमारे ईश्वर सदा से ही अपनी अप्सराओं का प्रयोग मुनियों के तप को भंग करने और उनकी काम वासना को जगाने के लिए करते थे। यह ईश्वर मुनियों की औरतों के साथ भेस बदल कर उनकी देह को भोगते थे । यह सब जरूर छुपा लेना नहीं तो सम्भवतः हमारी सभ्यता का नग्न सत्य उन सभी देशों के सामने आ जाएगा जिनकी आप ने दौड़ लगाई है । इन देशों के सामने बस वर्तमान का ही सत्य जाना चाहिए।

     भारत की देह पर बड़े छोटे घाओं बहते मवाद में आज भी वर्ण व्यवस्था के कीड़ें बिलबिला रहे हैं । इन के होने की वजह से आज भी शूद्रों की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है । वही दूसरी ओर स्त्रियों का वर्तमान और सभ्य भारत में क्या स्थान रहा है । यह एक विचारणीय बिंदु है । इतने दशकों पश्चात क्या हम लैंगिक पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा से उभर पाए हैं या अभी भी उनमें उलझे हुए हैं ? यह एक अहम सवाल है । क्यों वह आगे बढ़ कर भी पीछे रह जाती है। दुगना श्रम कर भी आश्रमिक कहलाती है। क्या वह उस स्थान पर भी खड़ी नहीं होती थी कि उन्हें वर्ण व्यवस्था में स्थान दिया जा सके या उनके लिए पांचवा स्त्री वर्ण ठहर सके।


   वर्तमान संदर्भों में देखें तो केवल समय बदला है । पूर्वाग्रह का दोष कहीं न कहीं आज भी मौजूद हैं। आए दिन न्यूज चैनलों में, अखबारों में , बराबरी ने नाम पर होने वाली हिंसक गतिविधियां , कत्ल व आत्महत्या की खबरें सुनते /पढ़ते है । इससे क्या साबित होता है । क्या ये तथा कथित कहानी या क्रूरता किस चीज़ का परिणाम है जहां पुरुष 9 घंटे काम करके भी " इम्पोर्टेन्ट पिलर ऑफ द फैमिली " कहलाते हुए गर्व महसूस करता है वहीं उस घर की महिला उससे दुगना 9 नहीं 18 घंटे नॉन स्टॉप काम करती है फिर भी वह सिर्फ स्त्री बन कर रह जाती है । स्त्री शब्द के मायने कमज़ोर नहीं है । परंतु आज उसे कहाँ पहुंच दिया गया है ? जहां गूगल स्त्री शब्द का अर्थ "मनुष्य जाति का विशेष सदस्य " दिखाता है । वहीं अब साथ में अन्य अर्थ "पत्नी या जोरू " को भी रेखांकित करता है । क्या हम आधुनिकता की और बढ़ रहे हैं या अमौलिक विचारधारा को स्थान दे रहे हैं..?

      2011 की जनगणना में भी कोई खास फ़र्क देखने को नहीं मिला है । कहना न होगा कि वर्ण व्यवस्था आज भी समाज में अपने कदम जमाए हुए है । परंतु स्त्रियों के लिए अच्छी सूचना यह है कि जहां उन्हें उस वर्ण व्यवस्था में स्थान प्राप्त नहीं था , वहीं  वर्तमान में चल रही वर्ण व्यवस्था में उन्हें स्थान दिया जा रहा है। भारत सरकार ने घरेलू महिलाओं को कैदियों और भिखारियों के आर्थिक वर्ण की गणना में एक बाद फिर शामिल किया गया । इस तरह सरकार द्वारा कहे जाने वाले वाक्य कहा तक सही है जब प्रधानमंत्री जी कहते है -"महिलाओं को मिला संम्मान "


      स्त्री आज भी रेस में तो दौड़ रही है पर कहीं न कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार कर चुकी है कि वह कुछ नहीं करती क्योंकि उन्हें यह सोचने का अवसर ही नहीं दिया जाता है कि वह कुछ करती हैं या कर सकती हैं । उदाहरण के रूप में मास्टर शैफ संजीव कपूर को ले सकते हैं , जो खुद रसोई में खाना बनाने का काम करते हैं और उनकी इंटरनेट पर मौजूद सैलेरी टू मिलियन डॉलर है । हालांकि स्त्रियां भी इस प्रोफेशन में कमा रहीं हैं ,परंतु सवाल यह है कि क्या घर पर भी काम कर जो संजीव कपूर होटल में करते है उन्हें वेतन तो क्या एक अहम स्थान तक नही दिया जाता है ? दोस्तों जवाब हम सबके पास है । उसी प्रकार पुरुष अपने ऑफिस में सेक्रेट्री रखता है जो उसका एकॉउंट संभाले और उसके लिए वह उसे वेतन देता है , परंतु कहीं न कहीं वही काम घर की स्त्री कर रही होती है जिसे सेक्रेटरी सूचक शब्द से पुकारना सही न होगा , क्योंकि वह उससे बढ़कर काम करती है । घर का सारा हिसाब किताब उसके पास होता है और वह होटल मैनेजमेंट का कोर्स किए बिना उस सेक्रेटरी से बेहतर मैनेजमेंट करती है तो फिर क्या ये मान लिया जाए कि पुरुष को मुफ्त की नौकरानी की आवश्यकता होती है क्योंकि सब प्रत्यक्ष होते हुए भी कानून अंधा होता है ।

      स्त्रियों के लिए क्या दृष्टि बनाई गई है और वह कितनी सक्षम है इसमे कोई दोहराए नहीं है । बाहर काम करने वाली स्त्रियां सेल्फ इंडिपेंडेंट तो होती ही है वहीं दूसरी ओर घरों में काम करने वाली अवैतनिक स्त्रियां भी कई ज़्यादा सक्षम हैं क्योंकि उनके पास जितना प्रेक्टिकल तजुर्बा है, वह किताबी ज्ञान से परे हैं। माँ बच्चे के हाव-भाव क्रियाएं देख उसकी सांकेतिक भाषा को समझ जाती है जो उस परिवार में रहने वाले पुरुष के लिए आम बात नहीं है । वहीं उसे दूसरी दृष्टि से देखें तो पुरुष अपने बच्चे के देखभाल के लिए आया रखता है जिसे वह वेतन देता है परंतु वही काम जब माँ करती है तो उसका कोई मोल नहीं क्योंकि वह उसका बच्चा है उसकी जिम्मेदारी है और तथाकथित रूप से उस बच्चे के पैदा होने में उस पुरुष का कोई हाथ नहीं है ।

       भारत में अभी भी लगभग 80% स्त्रियाँ चुपचाप पूर्वाग्रह पर चल रही है । आए दिन हताहत होती है । अपनी आवाज़ उठाने के लिए तैयार नहीं होती हैं । यदि स्त्रियां सेल्फ इंडिपेंडेंट होगी और अपने लिए आवाज़ उठा पाएं तो नहीं लगता कोई भी उन्हें हीन दृष्टि से देखे या उन पर नज़र उठा पाए । स्त्रियों के साथ होने वाली क्रूरता इत्यादि का एक कारण मैं इसे भी मानती हूं कि खुद कंही न किन्हीं स्त्रियों में आगे बढ़ने की चाह मरती सी जा रही है ।

Tuesday 15 August 2017

शायक आलोक की तीन बेहतरीन कविताऐं


   शायक आलोक की  तीन बेहतरीन कविताऐं




    

   ( 1 )

होआ नहीं होती
घर से भागी हुई लड़कियां

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होआ नहीं होती
घर से भागी हुई लड़कियां
पहनती है पूरे कपड़े
संभाल के रखती है खुद को
एक करवट में गुजारी रात के बाद
सुबह अंधेरे पिता को प्रणाम करती हैं
मां के पैरों को देख आंसू बहाती है
गली के आखिरी मोड़ तक मुड़ मुड़कर देखती है

घर के देवता को सौंप आती है मिन्नते अपनी।

प्रेयस देख मुस्कुराती है घर से भागी हुई लड़कियां
विश्वास से कंधे पर रख देती है सर अपना
मजबूत होने का नाटक करती,
पकड़ती है हथेली ऐसे
जैसे थाम रखा हो पिता ने नन्ही कलाई उसकी
और सड़क पार कर जाती है।

नए घर के कच्चे मुंडेर से
रोज आवाज लगाती हैं भागी हुई लड़कियां
वही रोप देती है एक तुलसी बिरवां,
रोज-रोज सभांलती गृहस्थी अपनी
कौआे को फैंकती है रोटी
 मां से सुख दुख की बातें चिड़िया को सुनाती है।

 फफफ..क कर रो देती हैं घर से भागी हुई लड़कियां
 घर से भागी हुई लड़कियां
 होआ नहीं होती ।

  ( 2 )

  लड़के

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लड़के भी छुपा रख आते हैं अपनी उम्र
मां के पुराने संदूक में
लड़के भी कभी तेल लगा बाल बनाते हैं
छुप कर रोते हैं लड़के
मां की मन तोड़ देने वाली झिड़की पर
लड़के छत पर चिड़ियों से मन की बातें बताते हैं
नाव पर रख देते हैं प्यार वाली चिट्ठी
गुनगुनाते नाव को पार लगाते हैं

लड़कियों से नहीं रहे लड़के
दोस्तों से नहीं बात पाते मन की पीड़ा
सुलगते हैं खुद के भीतर
लड़के छुपकर कश लगाते हैं ।

धीरे धीरे लड़की नहीं होने का हुनर सीखते लड़के
एक दिन बड़े हो जाते हैं।


    ( 3 )
मेरी चाय को तुम्हारी 

फूंक चाहिए सादिया हसन

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 मेरी चाय को तुम्हारी
फूंक चाहिए सादिया हसन,
यह चाय इतनी गर्म कभी ना थी।
इसकी मिठास इतनी कम कभी ना थी।

मैं सूंघता हूं मुल्क की हवा में लहू की गंध
कल मेरे कमरे पर आए लड़के ने पूछा मुझसे कि
" क्रिया की प्रतिक्रिया " में पेट फाड़ अजन्मे शिशु को
 मार देंगे क्या ?
 बलात्कार के बाद लाशें को जला देंगे क्या ? "

हम दोनों फिर चुप रहे सादिया हसन
 हम दोनों फिर चुप रहे सादिया हसन

हमारी चाय रखी हुई ठंडी हो गई।
हम फूलों तितलियों शहद की बातें करते थे
हम हमारे दो अजनबी शहरों की बातें करते थे
हम चाय पर जब भी मिलते थे
बदल लेते थे नजर चुरा कर,
हमारे चाय की गिलास।
पहली बार तुम्हारी झूठी चाय पी तो
तुमने हे राम कहा था,
मेरा खुदा तुम्हारे हे राम पर मिट गया था।

पर उस सुबह की चाय पर
सब कुछ बदल गया सादिया हसन
एक और बार अपने असली रंग में दिखी
यह कौमें.. यह नस्लें...यह मेरा तुम्हारा मादरे वतन।
टीवी पर आग थी..खून था..लाशे थी...

उस दिन खरखराहट थी तुम्हारे फोन में आवाज में
 तुमने चाय बनाने का बहाना कर फोन रख दिया

 मैं जानता हूं उस दिन देर तक ऊबाली होगी चाय
 मैंने कई दिन तक चाय नहीं पी सादिया हसन

 ठंडी हो गई खबरों के बीच तुम्हारी चिट्ठी मिली थी "गुजरात बहुत दूर नहीं है यहां से
और वह मुझे मारने आए तो
तुम्हारा नाम ले लूंगी
तुम्हें मारने आए तो
मेरे नाम के साथ कलमा पढ़ लेना
और मैं याद करुंगी तुम्हें शाम सुबह की चाय के वक़्त तुम्हारे राम से डरती रहूंगी ताउम्र
मेरे अल्लाह पर ही मुझे अब कहां रहा यकीन "

तुम्हारे निकाह की खबरों के बीच
फिर तुम गायब हो गई सादिया हसन
मैंने तुम्हारा नाम उसी लापता लिस्ट में जोड़ दिया
जिस लिस्ट में कई लापता सादियां सुमिनओं के नाम थे
नाम थे दोसाला चारसाला बारहसाला अब्दुला के अनवरो के।

हज़ारों चाय के साथ यह वक्त गुजर गया
मैं चाय के साथ अभी अखबार पढ़ रहा हूं  सादिया हसन खबर है कि गुजरात अब दूर नहीं रहा
मुल्क के हर कोने तक पहुंच गया है।

 मेरे हाथ की चाय गरम हो गई है।
यह चाय इतनी गरम कभी न थी।
इस की मिठास इतनी कम कभी ना थी सादिया हसन

मेरी चाय को तुम्हारी
फूंक चाहिए सादिया हसन ।

Monday 14 August 2017

पैट्रिशिया हाईस्मिथ की कहानी - डांसर



                   

          पैट्रिशिया हाईस्मिथ अमेरिकी कथा साहित्य की बेहद लोकप्रिय लेखिका रही है जिनकी कृतियों पर अल्फ्रेड हिचकॉक सहित अनेक नाम चाहिए निर्देशकों ने लोकप्रिय फिल्में बनाई। 20 उपन्यास और 7 कहानी संकलन प्रकाशित । कृतियों पर दो दर्जन के करीब फिल्में और TV प्रोग्राम बने हैं। अनेक कृतियों का नाट्य मंचन हुआ । अमेरिका और यूरोप के अनेक पुरस्कार और सम्मान में मिले हैं। 1991 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए उनका नामांकन किया गया था तो आइए आज हम उनकी एक कहानी डांसर पढ़ते हैं जिसमें प्रेम के एक अनोखे मोड़ का स्वाद मिलता है।



                                     डांसर

   

                              -पैट्रिशिया हाईस्मिथ-

   

        साथ-साथ जब वे मिलकर डांस फ्लोर पर उतरते तो लाजवाब डांस करते, फर्श की ओर बारी-बारी से झुकते और दूर जाते हुए टैंगो के कामोत्तेजक ताल और लय तक पहुंच जाते । क्लांदिते 20 साल की और रोडेल्फे 22 साल का । साथ - साथ डांस करते-करते वे एक दूसरे को बेइंतहा प्यार करने लगे थे। वह दोनों शादी के सूत्र में बंधना चाहते थे। मगर मालिक को लगता था प्यार आंच पर तपने वाले यह दोनों कलाकार शादी से मेहरूम है इसी कारण ग्राहकों को ज्यादा उत्तेजित कर पाते सो वह दोनों चाहकर भी शादी करने से लाचार थे।
     
       जिस नाइट क्लब में वह डांस करते थे उसका नाम था - द रेंदेवू और थके मांदे अधेड़ आयुवर्ग के मर्द ग्राहकों के बीच इसकी शोहरत नपुंसकता के शर्तिया इलाज के अड्डे के तौर पर थी। आप तशरीफ़ लाइए और क्लांदिते रोडेल्फे कमोत्तेजक डांस देखिए। इसके बाद भी आप की मांसपेशियों में हरकत ना हो, हो ही नहीं सकता ।
 
       अपने कॉलम को मसालेदार बनाने के लिए पत्रकार उनके डांस को परपीड़न-स्वपीड़न सुख कहकर पुकारते क्योंकि डांस के दौरान अक्सर रोडेल्फे क्लांदिते का गला इस तरह दबाता जिसे देखने वाले को आभास होता है, उस बेचारे की जान अब निकली तब निकली । उसकी गर्दन कसकर पकड़ और क्लांदिते को उल्टाकर नीचे को झुका देता । उसके बाद पलट जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अपनी मजबूत हथेलियां उसकी गर्दन पर गड़ाकर इतनी तेज तेज झकझोरता कि उसकी लटे इधर-उधर पागलों की मानिंद हवा में लहराने लगती। तमाशा देखने वाले दर्शक बेसब्री से तेज सांस लेते, चीखते, सिसकियां लेने लगते और आगे का नतीजा जानने के लिए आंखें फाड़-फाड़कर दम साधे कुर्सियों से चिपक जाते। ड्रम बजाने वाले तीनों ड्रमर अपनी गति और आवाज बढ़ाते जाते किसी जुनून की तरह ।
     
     क्लांदिते ने काफी समय से रोडेल्फे के साथ शरीर की दूरी बना ली थी । उसको भरोसा था कि उसकी देह से दूर रहकर रोडेल्फे की भूख और बढ़ेगी । डांस करते हुए रोडेल्फे को किस तरकीब से उत्तेजना के चरम पर ले जाना है , क्लांदिते को अच्छी तरह मालूम था और उस शिखर पर ले जाकर उसको अतिरिक्त तड़पता हुआ छोड़कर चुपचाप निर्विकार भाव से कैसे निकल जाना है। यह भी तालियों की गड़गड़ाहट के बीच। कई बार आंखो के सैलाब के बीच। दर्शकों में से शायद ही किसी को भांन होता था कि क्लांदिते वास्तव में रोडेल्फे को भूखा प्यासा छोड़कर नाइट क्लब से बाहर निकल जाती है ।
 
      क्लांदिते असल जिंदगी में बिंदास तबीयत की स्त्री थी। जीवन को योजनाबद्ध तरीके से जीना उसके स्वभाव में नहीं था । उसके संबंध चार्ल्स नाम के एक अमीर उदार और सहृदय तोंदियल के साथ बन गए थे। उनके बीच सिर्फ मित्रता नहीं बल्कि शारीरिक अंतरंगता भी थी।  क्लांदिते और रोडेल्फे जब पूरे जोर से डांस करते तो हॉल में सबसे ज़ोर ज़ोर से पागलों की तरह चिल्लाने वाला चार्ल्स ही होता । वह सब के बीच ठहाके लगाकर वहां हँस सकता था क्योंकि उसे मालूम था कि थोड़ी देर बाद क्लांदिते को उसके आगोश में आना होगा।
 
      डांस से कमाई क्लांदित और रोडेल्फे मिलकर करते थे इसलिए रोडेल्फे ने क्लांदिते पर चार्ल्स से अलग होने का दबाव बनाना शुरु कर दिया था।

      चार्ल्स को ना छोड़ने की स्थिति में डांस छोड़ देने की भी उसने धमकी दे डाली। ना-नुकुर करने पर उसने इतनी रियायत की कि डांस भले ही करता रहेगा पर वह क्लांदिते की गर्दन पर हाथ लगाकर उसको मार डालने का उत्तेजक दिखावा बिल्कुल नहीं करेगा। दर्शक इसी जुनूनी पल के दीवाने थे। रोडेल्फे को अच्छी तरह मालूम था कि वह चार्ल्स  साथ कोई संबंध नहीं रखेगीं। रोडेल्फे के अड़ियल रवैया को देखकर क्लांदिते ने मान लिया। उसने अपना वायदा ईमानदारी से भी निभाया । क्लांदिते की बेरुखी से दुखी होकर चार्ल्स ने भी नाइट क्लब का रास्ता छोड़ दिया।

       धीरे-धीरे रोडेल्फे के सामने यह राज खुला की चार्ल्स को छोड़ने के बाद क्लांदिते दो-तीन अन्य लोगों के साथ शारीरिक संबंध बनाने लगी । जाहिर है चार्ल्स का स्थान जब तीन दीवानों ने ले लिया तो आमदनी पहले से बढ़ गई ।
   
       अब रोडेल्फे क्लांदिते पर उन तीनों आशिकों से नाता तोड़ देने का दबाव बनाने लगा । उसने हामी भरी पर हर शाम क्लांदिते के ग्रीन रूम के दरवाजे पर फूलों का गुलदस्ता और नोटों की गड्डी लेकर खड़े होने वालों का तांता ऐसे था कि टूटता ही नहीं था

       रोडेल्फे को क्लांदिते  के साथ एक बिस्तर पर सोए हुए पांच महीने हो गए थे। हालांकि कोई शाम ऐसी ना बीतती जब दो सौ दर्शकों की लोलुप निगाहों के बीच दोनों के बदन एक दूसरे से डांस करते हुए रगड़ते नहीं, गुत्थमगुत्था ना होते।
 
      एक ऐसी ही शाम थी। जब रोडेल्फे ने पूरी तन्मयता के साथ क्लांदिते के साथ डांस किया । उसके बदन से गुत्थम-गुत्था होने में उसने उस शाम कोई कोताही नहीं बरती। क्लांदिते की गर्दन पकड़ कर जैसे ही उसने उसको नीचे झुकाया। लोगों ने जुनून में चिल्लाना शुरु किया और... और.... लोगों के उकसावे पर रोडेल्फे की उंगलियां क्लांदिते की गर्दन पर जकड़ती गयीं और...और...
 
       क्लांदिते डांस में हरदम रोडेल्फे के हाथों सताया जाना और उसको गहरे प्यार की निशानी मानने का स्वांग करती रही थी । उस शाम जब डांस की क्लाइमेक्स रोडेल्फे की हथेलियां क्लांदिते की गर्दन से हट गई, वह तब भी उठी नहीं । रोडेल्फे ने भी उसको उठाने या संभालने का कोई जतन नहीं किया । हर बार अंत में ऐसा किया करता था । उस शाम उसने क्लांदिते की गर्दन सचमुच दबा दी थी । उसकी जकड़न इतनी तगड़ी थी कि क्लांदिते की आवाज तक नहीं निकली ।डांसिंग स्टेज से रोडेल्फे इत्मिनान से नीचे उतरा और हाॅल से बाहर निकल गया। फर्श पर बेजान पड़ी हुई क्लांदिते को वहां से उठाया भी तो दूसरे अनजान लोगों ने ।

अनीता नेगी की चार कविताएं


          अनीता नेगी की चार कविताएं

   




( १)

मौत
रोज़ रोज़ आए
तो
रोज़ मरने
काशी कौन जाएगा,
यह स्वर्ग के रास्ते भी कम खर्चीले नहीं ।

प्रतिक्रिया देना
दावेदारी है ज़िंदा होने की,
अब घड़ी घड़ी
कौन इंकलाब टेरता रहे,
यह जिंदा रहने की तिड़कमें भी
कम बनावटी नहीं।

रोज़ निकलो घर से
मगर पहुंचो कहीं नहीं ,
यह जीने की शर्त भी
कम घिसावट नहीं ।

(२)

कभी
छोटे, बहुत छोटे अदने
आदमी से बात करना और
उसकी सुनते चले जाना
पाओगे जमाने की
लतकार फटकार के बीच
उसके पास है हजारों किस्से ।

किस्सों की अपनी दुनिया का वह एक अकेला नायक है, उसके पास जीत की
बहुत छोटी छोटी सी लघु कथाएं हैं,
मगर वह अपनी हर कथा में जीतना नहीं चाहता
बस बेज्जती से बचे रहना चाहता है ।

उसके भीतर चाय जैसा खोलता रहता है
हरदम कुछ ना कुछ ।

(३)

अपने ही देश के परदेसी मजदूर
रहते हैं शहरों में गुमनाम पतों पर
भेड़ों के झुँड की तरह
सबसे सस्ते और उदासीन कमरों में

मन को हरा करने के लिए सुनते हैं
अपने भोजपुरी नेपाली गाने

शाम को इन सब मजदूरों में
फर्क करना मुश्किल होता है
हर थके मांदे चेहरों का एक जैसा भूगोल
और भाग्य का एक जैसा इतिहास होता है

वह तसलो के साथ उठाते हैं
अपना इकराह शरीर
और पसीने के गीलेपन के साथ
तसले के ऊपर जिम्मेदारी के भारीपन को भी

मैंने देखा नहीं कभी
किसी मजदूर को कविता लिखते
देर रात करवटें बदलते हैं

उसे किस्सों का किरदार बनते देखा है हर बार
यह कच्चे इंसान है जो सिर्फ पक्के मकान चिनते हैं
भूखे पेट सोते हैं
गूंगी ज़बान में रोते हैं।

(४)

कूड़ा बीनने वाले बच्चे
 आज भी नहीं नहाए
जैसे सोए थे वह
वैसे ही उठ खड़े हुऐ
अपना बौरा उठाए चल पड़े हैं

" आज देर हो जाएगी "
कहकर काम वाली बाई
निकली सुबह सात बजे से
शाम के सात बजे तक
 पृथ्वी के सापेक्ष पांच घरों का फेरा लगा देगी।

सच बतलाओ
तुम लोगों के कैलेंडर में
कितने इतवार आते हैं ?


" भवन्ति " - संम्पादक के जीने की ज़रूरत।

                " भवन्ति '' - संम्पादक के जीने की ज़रूरत। मैंने " भवन्ति " के बारे में सुना और जाना कि ...