' देश जलता रहा नीरो बांसुरी बजाता रहा '
कालू लाल कुषमी
अभी गोहाना कांड की बात करें तो एकदम साफ है। दलितों की बस्तियां जलाई गई । पुलिस प्रशासन जनता रहा पर कुछ नहीं किया । प्रधानमंत्री ने शोक संदेश भेज दिया और बात खत्म हो गई। एक दिन वह था जिस दिन हिंदू धर्म के महान आचार्य को पुलिस ने गिरफ्तार किया और जेल में डाल दिया। वह इस अपराध में कि वह हत्यारा है। अपराधी अपराधी होता है, वह कोई भी हो। उस दिन सभी लोग भोंक उठे। अटल बिहारी वाजपेई , अडवाणी , सुदर्शन सभी ने कहा कि वह तो हमारे अस्मिता पर हमला है और हम इसको बर्दाश्त नहीं करेंगे। यह तो महान पुरुष है । इन पर कोई कानून लागू नहीं होता । इस तरह की बयानबाजी करने लगे तब और अब में अंतर कौन पैदा कर दिया। गोहाना कांड पर कथादेश में कुछ तस्वीरें और कुछ आलेख छापे हैं। वह स्पष्ट संकेत करते हैं कि गुजरात कांड की तरफ सोची समझी रणनीति के तहत हुआ है । पुलिस पहले ही जानती थी पर उसने कुछ भी नहीं किया।
मंच पर भाषण देने वाले हमारे नेता और नौकरशाह किस तरह से अपनी परंपरा को बनाने में लगे हैं।खासकर अगर बात करें तो सत्ता होती ही क्रूर है। वह अपने आसपास ऐसे तगड़े खंबे खड़े कर देती है कि उनको तोड़ना बहुत कठिन होता है। अरबों में खेलने वाले मंत्री संत्री क्या सोचेंगे, गरीबी के बारे में उनको तो अपनी पड़ी रहती है।
1953 में ब्रेख्ट ने एक कविता लिखी थी जो आज बहुत ही प्रासंगिक लगती है -
" 17 जून के विद्रोह के बाद
लेखक संघ के मंत्री ने एक परचा बंटवाया
जिसमें कहा गया कि जनता ने,
सरकार का विश्वास खो दिया है।
अब वह उसे कठिन परिश्रम से ही पा सकती है।
क्या सरकार के लिए सरल नहीं होगा कि
वह जनता को भंग कर दे
और दूसरी जनता का चुनाव कर ले "
खासकर जनता के प्रतिनिधि ही जनता से खेल रहे हैं। एक तरफ तो बाजार जैसा जाल सारी दुनिया को अपने चंगुल में फंसाता जा रहा है और अंदर ही अंदर चूसता जा रहा है । उस पर हमारे सेवक कहलाने वाले नेता अपना गेम भर कर रहे हैं । हर पार्टी अपनी तथाकथित जनता की हीन साधना का राग अलापती है और कुर्सी की ताक में रहती है।
कुल मिलाकर किसी भी देश का विकास वहां की सरकार के हाथों में होता है क्योंकि सरकार की नीतिया लागू करती है वही देश एक देश के आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की दिशा तेज होती है। अगर हमारी व्यवस्था सधी हुई नहीं होती है तो हमारा समाज एक दम सही होगा।
" लोकतंत्र के पांव में नष्ट होते मेरे देश
हमें कितना हो सकता है
तुम्हारे दुखों का इल्म...?
हम तो अभी ढूंढ रहे हैं
पशु और इंसान में फर्क
हम कुत्तों में से जूएं पकड़ते हुए
सीने में पाल रहे हैं
सर्वशक्तिमान की रहमत
हमारे रोज की फिल्मों की भीड़ में गुम हो गई है
वह आदर्श जैसी पवित्र चीज
हम तो उड़ रहे आंधियों में
सूखे हुए पत्तों की तरह "
लोकतंत्र हमारा है या चंद लोकतंत्र के नाम पर अपनी कोठिया भरने वालों का। सब कुछ जनता के सामने हैं। जिम्मेदार कौन है। यह भी सामने हैं और जिम्मेदार क्यों है, यह भी सामने हैं। भारत की खोज अभी बाकी है। मनुष्य की खोज अभी बाकी है। आपसी षड्यंत्र की रेखाओं के बीच गुम हो गया है वह पल जहां आदमी आराम से सांस ले सके। बस उसी पल की खोज में हम और आप.......
साभार - इतिहासबोध