Saturday 22 July 2017

' कफ़न ' में बुनता हिंदी रंगमंच का भविष्य और अदनान बिस्मिल्लाह

कफ़न में बुनता हिंदी रंगमंच का भविष्य और अदनान बिस्मिल्लाह                                                                                                                                
                                                                                                                          -.                               
कैफ़ी हाश्मी -


   अदनान बिस्मिल्लाह हिंदी रंगमंच की दुनिया में ऐसा नाम है जो कभी चकाचोंध की दुनिया में नहीं रहा, मगर उनके नाम की गूंज सर्वत्र अपनी दिशाऐ तलाश लेती है। अदनान बिस्मिल्लाह का संपूर्ण रंगमंच एक प्रयोग है। प्रयोग के बरक्स वे किस्सागोई करते हुए नाटक की मूल संवेदना तक पहुँचते है। यह प्रयोग केवल अभिनय तक ही सीमित नहीं होता है बल्कि पात्रों की रूप सज्जा, प्रकाश व्यवस्था से लेकर मंच के संपूर्ण आवरण तक फैला रहता है। ऐसी ही उनकी एक प्रस्तुति है- " कफ़न"


कफ़न प्रेमचंद की सबसे सुप्रसिद्ध कहानियो में से एक है। कफ़न को पढ़ते समय एकबारगी यह महसूस ज़रूर होता है कि इसे खेलना क्या सच में समंभव है ? इस सवाल का जवाब निर्देशक का सामर्थ्य ही दे सकता है। निर्देशक ये सामर्थ्य नाटक की निजी विशेषता के रूप में सामने आता है। वह है - इसका नैरेशन । मंच पर नज़र आने वाले कलाकार अभिनेता भी है और नैरेटर भी। वे एक क्षण में जहाँ अपने एक पात्र को जी रहे होते है वहीँ दूसरे क्षण में वे किस्सागोह होते हैं। प्रसव वेदना से पीड़ित बुधिया कब कहानी कहने लगेगी और ठाकुर के पैरों पर रोते-रोते कब घीसू और माधव नाटक को नैरेट करने लग जायेगें, इसका अंदाज़ा लगा पाना दर्शकों के लिए निस्संदेह मुश्किल होता है।


वास्तव में कफ़न भावनाओं का समंदर है। हिंदी कहानियों की बात की जाये तो यह अपने आप में एकमात्र ऐसी कहानी है जो दुःख, विषाद, विडंबना, हर्ष , तृप्ति, हास्य, आंनद जैसे अनेक भावो को अपने भीतर समेटे कर चलती है। ऐसे में सबसे बड़ी चुनौती निर्देशक के सामने होती है कि  वह किस प्रकार इन भावो को बिना गडमड किये इनके वास्तविक अर्थ में प्रस्तुत करे। अदनान बिस्मिल्लाह 'कफ़न' के नाट्ये रूपांतरण में न केवल इन चुनौतियों पर विजय प्राप्त करते हैं बल्कि अपने प्रयोगात्मक तेवर से हिंदी रंगमंच को नया रास्ता भी दिखाते हैं। यह प्रयोगात्मकता नाटक के संपूर्ण-विधान में आरम्भ से लेकर अंत तक व्याप्त है ।


    यह प्रयोगात्मकता दर्शकों को हैरत में डाल देती है कि किस प्रकार पात्रों के ज़रिये अभिनीत प्रत्येक भाव अथवा द्रशय मंच पर रखे शीशे पर चित्रित हो रहा है। दरअसल फाइन आर्ट्स के कलाकर मंच पर प्रत्येक भाव या द्रश्य के अनुरूप चित्र बना रहा होते है जो प्रकाश व्यवस्था के कारण दर्शकों से ओझल रहते हैं। 
     


ऐसा ही एक और प्रयोग मुक्तिबोध की कविता ' अंधेरे में ' के रूप में किया गया है। घीसू और माधव जब-जब अपने जीवन की सार्थकता के प्रश्न में उलझते है। मंच पर नृत्यांगनाओ के ज़रिय ' अँधेरे में ' कविता पर नृत्य किया जाता है। इस नृत्य में प्रकाश व्यवस्था जल्दी-जल्दी बदलती है जो जीवन के क्षण-क्षण बदलने का प्रतीक है। ऊपर जिन भावनाओ के गडमड होने की आकांशा जताई गयी थी, उसका समाधान ही यह कविता और नृत्य है जो प्रत्येक भाव को एक-दूसरे से पृथक रखता है। कविता सम्पात, नृत्य सम्पात पुनः घीसू और माधव अपने मद में लौट आते है लेकिन तबतक कविता के शब्द ' अब तक क्या जीया, जीवन क्या जिया '' घीसू और माधव के प्रत्येक व्यंग्य को विडंबना की ओर धकेल चुके होते है और दर्शक नाटक में तबतक खोया रहता है जब तक घीसू और माधव नशे में चूर होकर  गिर नहीं आ जाते ।


      कम शब्दों में, कफ़न एक यात्रा है जिसका प्रत्येक पड़ाव हिंदी रंगमंच के सुनहरे भविष्य की कहानी कहता है। जब तक कफ़न जैसे नाटक खेले जाते रहेंगे , हिंदी रंगमंच में सम्भवना बची रहेगी ।












Tuesday 18 July 2017

खलील गिब्रान और दार्शनिक लघु-कथाए


          खलील गिब्रान और दार्शनिक लघु-कथाएं


                                 


ख़लील गिब्रान लेबनान के सुप्रसिद्ध तथा चर्चित कवियो  और दार्शनिको में एक कालजयी व्यक्तित्व  है। उनकी लिखी गयी कृतियां इस संसार के लिए अविस्मरणीय है। तो आइये पढ़ते है उनकी कुछ दार्शनिक लघु-कथाऐं -

( युद्ध और छोटे देश )


एक बार ऊँचे पहाड़ पर  चारःगह में एक भेड़ और एक मैंमना चर रहे थे। वहीँ बहुत भूखी एक चील उनपर नज़र गड़ाए ऊपर मंडरा रही थी और ऐन उस वक़्त जब वह अपने शिकार पर झपटने के लिए डुबकी लगाने वाली थी , एक अन्य चील भेड़ और उसके बच्चे पर झपट पड़ी। बस दोनों प्रतिद्वंदी की चीखो से आसमान गूंज उठा।

भेड़ ने ऊपर देखा वह बेहद डर गयी और अपने बच्चे से बोली :

'' मेरे बच्चे , ये दोनों बहादुर पक्षी आपस में  लड़ रहे है। इतना बड़ा आसमान इनके लिए छोटा है ? दुआ करो , अपने में दिल में दुआ करो मेरे बच्चे कि ईश्वर तुम्हारे इन पंखो वाले भाइयो के बीच शांति कायम करे ''

और मैंमना अपने दिल में प्राथना करने लगा।


 ( भूखा आदमी )


    एक बार एक आदमी मेरी मेज़  पर आ बैठा। उसने मेरी रोटियां खाली और वाइन को पीकर,  मुझपर हसता हुआ चला गया।
रोटी और वाइन की तलाश में अगली बार वह फिर आया। इस बार मैंने उसे लात मार कर भगा दिया।
उस दिन फरिश्ता मुझ पर हंसा ।

 (सात कबूतर )


सात सौ साल पहले सात सफ़ेद कबूतर घाटी की गहराई में से बर्फ़ीले पहाड़ो की ओर उड़े।

उनकी उड़ान को देखने वाले सात लोगो में से एक ने कहा --

''सातवे कबूतर के पैरो पर मुझे एक कला धब्बा नज़र आ रहा है  ''

आज उस घाटी के लोगो को सफ़ेद पहाड़ो की ओर उड़े वे सातो ही कबूतर काळा नज़र आने लगे।






(आज़ादी )


वह मुझसे बोले -
'' किसी गुलाम को सोते देखो तो जगाओ मत। हो सकता है कि वह आज़ादी का सपना देख रहा हो  ''
मैंने कहा -
'' अगर किसी गुलाम को सोते देखो तो उसे जगाओ और आज़ादी के बारे मैं उसे बताओ ''


(आस्तिक और नास्तिक )


प्राचीन नगर आफगार में दो विद्वान रहते थे। वे एक दूसरे से नफरत करते थे और लगातर एक-दूर दूसरे के ज्ञान को नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते थे । उनमे से एक देवताओ के आस्तिव्त को नकारता था, जबकि दूसरा उनमे विश्वास करता था।

एक बार वे दोनों बाजार में मिल गए और अपने-अपने चेलो की मौजदगी में वे वहीँ पर देवताओ के होने न होने पर तर्क-वितर्क करने लगे। घंटो बहस करने के बाद वे दोनों अलग हुए।

    उस शाम नास्तिक मंदिर में गया। उसने अपने आपको पूजा की वेदी के आगे दंडवत डाल दिया और देवताओ से अपनी पिछली सभी भूलों के लिए शमा मांगी।

    उसी दौरान, दूसरा विद्वान जो आस्तिक था , उसने अपने सरे धर्मग्रंथो को जला डाला और वह नास्तिक बन चुका था।


(युद्ध और शांति )


धूप सेंकते हुए तीन कुत्ते आपस में बात कर रहे थे।

आँख मुंदकर पहले कुत्ते ने जैसे स्वप्न में हो बोलना शुरू किया  --

'' कुत्ताराज मैं रहना का वाकई अलग मज़ा है सोचो , कितनी आसनी से हम समंदर के नीचे, धरती के ऊपर और आकाश में घूमते है। कुत्तो की सुविधा का लिए अविष्कार पर हम ध्यान ही नहीं, अपनी आँखे , अपने कान और नाक भी केन्द्रित कर देते है  ''

दूसरे कुत्ते ने कहा -

'' कला के प्रति हम अधिक संवदेनशील हो गए है।चन्द्रमा की ओर हम अपने पूर्वज का मुकाबले अधिक लयबद्ध होकर भोंकते है। पानी में अपनी परछाई हमें पहले से अधिक साफ दिखयी देती है ''

तीसरा कुत्ता बोला --
'' इस कुत्तारज की बात मुझे जो सबसे अधिक भाती है , वह यह कि कुत्तो के बीच बिना लड़ाई-झड़े किये , शांति पूर्वक अपनी बात कहने और दूसरे की बात सुनने की समझ बनाना है ''

उसी दौरान उन्होंने  कुत्ता पकड़ने  वालो को अपनी ओर लपकते देखा।

तीनो कुत्ते उछले और गली में दौड गए। दौड़ते-दौड़ते तीसरे कुत्ते ने कहा -

'' भगवन का नाम लो और किसी तरह अपनी ज़िन्दगी बचाओ।  सभ्यता हमारे पीछे पड़ी है । "


Thursday 13 July 2017

जामिया रंगमंच का बदलता स्वरूप और अदनान बिस्मिल्लाह

जामिया रंगमंच का बदलता स्वरूप और अदनान बिस्मिल्लाह 




                      -   अहमद फहीम


   
     बदलती दुनिया और संक्रमित हो रहे समाज की सोच-विचारधारा के साथ-साथ जामिया-रंगमंच रंगमंच की एक नई प्रयोगशाला को व्यवस्थित कर रहा है। कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी, अगर जामिया को रंगमंच का पर्याय कहा जाये क्योकि दो वर्षों में जिस तरह का हस्तक्षैप जामिया-रंगमंच ने रंगमंच की दुनिया में किया है, वे आश्चर्येजनक ही नहीं, एक कदम है व्यावसायिकता के इस युग में रंगमंच को पुनः परिभाषित करने का। एक कदम है- उस पंरपरा को पुन: जीवित करने का जिसे रंगमंच के पुरोधा अपनी-अपनी स्मृतियों में लेकर राख होते गए। एक कदम है- रंगमंच का लोगो के जीवन में अर्थ प्रदान करने और लोगो को भावी जीवन के लिए नुक्ताचीं बनाने में ।

                                               जामिया की इस नयी कवायद को अमली जामा पहनाने में जिस व्यक्तित्व का हस्ताक्षर है, वह है -रंगमंचीयी कोलाज पर उभरा हुआ युवा-रंग, रंगकर्मी अदनान बिस्मिल्लाह। जामिया के सांस्कृतिक इतिहास में इतिहास रचने वाला ऐसा व्यक्तित्व जिसने राष्ट्रीय स्तर और रंगमंच के कैनवास पर जामिया-रंगमंच के इन्द्रधनुष को उकेरा। यह वह व्यक्तित्व है जिसने जामिया को "कल्चरल-हब"  बनने में लोहार की तरह कड़क और कुम्हार की तरह रचनाशील होकर कार्य किया कि आज प्रत्येक विभाग रंगमंचयी प्रस्तुतियां देने में अग्रणियी साबित हो रहा है। आज जामिया के ड्रामा क्लब के इतर, विभाग की ओर से भी रंगमंच की प्रासंगिकता के अर्थ को सिद्ध करने, उसकी आवश्यकता को पाठ्यक्रम जितना ही महत्व दिलाने और विघाथियों में रंगमंच के प्रति समझ पैदा करने के लिए एक नई तरह की व्यवस्था को व्यवस्थित किया जा रहा है जो सिर्फ़ रंगकमी अदनान बिस्मिल्लाह के कार्यशील और प्रयोगशील रहने का ही नतीजा है जिस कारण आज उन्हें जामिय-रंगमंच के नए अध्येता के रूप में स्वीकार किया जा रहा है।


     आज यह देखकर बड़ा ही ताज्जुब होता है कि जिस ड्रामा क्लब से उन्होनें अपने रंगमंच की शुरूआत की थी, आज वह उसी ड्रामा क्लब के निर्देशक पद पर असीन है। इस तरह उपलब्धि कुछ ही लोगो की किस्मत में बदी होती है कि जिस बरगद की छत्र-छाया में आप फले हो, आप भी उसी की तरह एक बरगद में तबदील हो जाए ।  लेकिन यह सब कहने की बात होती है क्योकि कोई यूँही बरगद नहीं हो जाता है। एक टहनी से बरगद हो जाने में उसे एक सदी-सी बीत जाती है और इसलिए अदनान बिस्मिल्लाह को भी रंगमंच के क्षेत्र में घुसपैठ करने तथा अपना मुकाम हासिल करने के लिए संघर्ष की हर धारा से गुज़रना पड़ा है।


   जामिया में पी.जी.डिप्लोमा इन जर्नलिज्म में दाखिला-प्रवेश के बाद उन्होंने जामिया ड्रामा क्लब में प्रवेश पाया लेकिन मात्र ६ महीने ही उन्हें वहाँ से विदा लेनी पड़ गयी मगर इस दौरान ही उन्होंने जामिया को नाॅर्थ-ज़ोन और नेशनल सांस्कृतिक यूथ काॅम्पीटीशन में रीपिरसेंट किया । ड्रामा-कल्ब छोड़ देने के बाद उन्होनें जामिया में ही अपना एक नया थिएटर ग्रुप शुरू किया और उसका नाम रखा - " प्रतिभा उन्नयन नाटिये मंच " और यही से उनके रंगमंच के संघर्ष की शुरूआत होती है।  उनकी यह शुरूआत भी दिलचस्प शुरूआत थी कि उन्हें जिस क्षेत्र में स्वंय को स्थापित और अपनी दावेदारी का लोहा मनवाना था। उसके विषय में ना तो किसी संस्थान से कुछ सीखा था और नहीं समझा और नाहीं कोई कागज़ का तुकड़ा लिया था जिसपर लिखा हो कि आप रंगमंच के बग़ीचे मे अपनी पौध लगा सकते है। उन्हें तो सड़क पर चलना था। सड़क से सीखना था और सड़क पर ही प्रयोग करना था यानि कि सड़क ही उनके के लिए रंगमंच का विश्वाविद्यालय बनी और सड़को पर चलने वाले लोग उनके महान शिक्षक बने जिनसे जो भी सीखा, उसे अपने रंगकर्म में उकेरते गए।


 एक दो साल बाद इन्होने दूरदर्शन में नौकरी के लिए आवेदन दिया और स्वीकृत हुआ जहाँ दूरदर्शन में रेह्कर कई मशहूर प्रोग्राम को प्रोडयूसड किया जिसमें " धरती नाचे एम्बर गाए " " दूरदर्शन के सुनहरे वर्ष " । कई नामचीन हस्तियों के साथ इंटरव्यू लिए जिसमे विष्णु प्रभाकर, श्याम बेनेगल, मन्ना डे, मशहूर डांसर सोनल मन सिंह आदि । '' Glimpes of dehli '' डोक्युमेंट्री में निर्देशक के तौर पर काम किया। तो " खानम "  सीरियल में अस्सिटेंट डिरेक्टर और एक अभिनेता के तौर पर भूमिका निभाई। मगर दूरदर्शन के साथ इनका सफर छ: वर्ष का ही रहा और किन्हीं कारणो से इस्तीफा देने के बाद पूरी तरह से थिएटर के लिए ही समर्पित हो गए और फिर जामिया में अपने थिएटर ग्रुप के साथ-साथ शहीद भगत सिंह, काॅलेज , पी.जी.डी.ए.वी. काॅलेज, बिला बोंग इंटरनेशनल हाई स्कूल नॉएडा, मानवभारती इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल आदि में थिएटर कोच रहे। जामिया के फाइन आर्ट्स विभाग में स्टेज-क्राफ्ट के इंस्ट्रक्टर और इंस्टिट्यूट ऑफ़ मीडिया मैनेजमेंट एंड कम्युनिकेशन स्किल्स में थियेटर- कोच के रूप में कार्य किया और आज जामिया ड्रामा क्लब के को-कविहनेर और हॉबी क्लब के इंचार्ज है और जामिया-रंगमंच की ओर से होने वाली सभी प्रस्तुतियों का कार्यभार संभालते है ।



     बारह से तेहरा वर्षो के अपने रंगकर्म में इन्होंने १०० के करीब नुक्कड़ों की प्रस्तुतियां दी । जिसमें गिरगिट, औरत , अपहरण बेचारे का, पुलिस चरित्रम, कुर्सी , बात का बतंगड़, सोच एक सवाल, संघर्ष हमारा नारा है, सड़क पर घर, मेह्गाई की मार, आर्तनाद, सोच आदि । कई मंच प्रस्तुतियां जिसमे - कफ़न, हवालात, कंजूस, दुलारी बाई, सबसे बड़ा आदमी, जवानी की डिब्बी, दो पैसे की जन्नत, बाँझ, कमीशन, हिजड़ो की पार्लिमेंट, बम बोले , डिसिपीलिने, यह भी हिंसा है, मेरा क्या कसूर था, जिस लाहौर नै देख्या वो जामियां नै, ग़ालिब कौन है, रिहल्सल, गाँधी ने कहा था, खालिद की खाला, अंधेर नगरी, हम ही करेंगे, बद्ज़ात तितली ( नाट्य रूपांतरण " शकीला की माँ " अमृतलाल नागर आदि जैसे यथार्थिक और मार्मिक नाटकों को निर्देशित किया ।


    रंगकर्म की उपरोक्त प्रस्तुतियों के मंचीयकरण में अदनान बिस्मिल्लाह जहाँ एक ओर सफ़दर हाश्मी की नुक्कड़-परम्परा के प्रतिबिंब नज़र आते है जिसे उन्होंने लगातार सड़को, चौक, चौहराहो, झुग्गी-बस्तियों में जा-जाकर पुनः जीवित करने की कोशिश की है तो दूसरी ओर हबीब तनवीर की प्रयोग-रीति और आशु-अभिनय को अपनाते हुए नाटकों के मंचन से नयी मिस्साल कायम की है। महान रंगकर्मी हबीब तनवीर के बारे में कहा जाता है कि वह अपनी नाटिये प्रस्तुतियों में जिस शैली का इस्तेमाल करते थे कि एक, वह जिन कलाकारों का चुनाव करते थे, वह लोग मूल रूप से लोक-परम्पराओ से जुड़े होते थे। दूसरा, मंचन से पूर्व जिस आशु-अभिनय का वह अभ्यास करते थे, वे उन्हें असीम अनुभवों से भर देते थे और उनका नाटिये मंचन दर्शको के सामने एक नया उदाहरण बनकर पेश होती था।


    मूलतः अदनान बिस्मिल्लाह भी उसी तकनीकी को आगे बड़ा रहे है। उसे ही व्यापक रूप देने की कोशिश कर रहे है लेकिन एक अदद बात अदनान बिस्मिल्लाह के रंगकर्म के बारे में अनोखी है कि उनका अबतक का रंगकर्म विद्यार्थियों के साथ रचा गया रंगकर्म है और यही उनके रंगकर्म की एक मूल विशेषता भी रही है कि उन्होनें विद्यार्थियों को रंगमंच के प्रति संवदेनशील और उसे समझने की कला को निखारने और साथ ही साथ उनमें प्रयोगशाली रहने की जिज्ञासा को ज़िदा करने की सूक्ष्म दृष्टि को विकसित करने का कार्य किया। विद्यार्थियों के साथ ही उन्होंने नए-नए प्रयोग किये । इन प्रयोगो में जहाँ एक ओर वह ब्रेखत के प्रयोगो को अपने नुक्कड़ रंगकर्म से जोड़ते रहे है तो दूसरी ओर स्तोलोनोवोस्की के प्रयोगो को अपने मंच-रंगमंच से कफ़न, हवालात, गाँधी ने कहा था, जिस लाहौर नई दैख्या वो जमिया नई और बदज़ात तितली जैसी सफल और अतिप्रशंसित नाटको का मंचन करके गूढ़-रिश्ता कायम किया है।


   
   यह इन्ही प्रयोगो का प्रतिफल है कि जामिया ने नार्थ-ज़ोन और नेशनल यूथ फेस्टिवल में अपनी धाक जमाई है और यह धाक ही जामिया को राष्ट्रीय स्तर पर हस्ताक्षर कराने में मददगार रही। आज जामिया जिन " प्रतिभाओ के अजायबघर " से शुमार और चर्चित और नए प्रतिमान को गढ़ने में रंगमंच के रथ का सारथी बना हुआ है, रंगमंच को हरेक विद्यार्थी के लिए ज़रूरी और लाभदायक बनाने में पहल कर रहा है, वह अदनान बिस्मिल्लाह के रंगमंच की नाव के गतिशील रहने से ही निर्मित हो रही है और आशा करते है कि इस नाव का खवैया कभी इसको धूमिल और पत्थर नहीं होने देगा।




Thursday 6 July 2017

नरेश सक्सेना : जनता के कवि

 नरेश सक्सेना 

              
               
                                                                             भूख                     

            भूख सबसे पहले दिमाग खाती है                  
                                              
उसके बाद आँखे 
फिर जिस्म में बाकी बची चीज़ो को 

छोड़ती कुछ भी नहीं है भूख 
वह रिश्तो को खाती है 
माँ का हो बहिन या बच्चो का  

बच्चे तो उसे बेहद पसंद है 
जिन्हे वह सबसे पहले खाती है 
और बड़ी तेज़ी से खाती है 

बच्चो के बाद फिर बचता ही क्या है 
  

                 अच्छे बच्चे                             

कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते है 
वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते 
मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करते 
और मचलते तो है ही नहीं 

बड़ो का कहना मानते है 
वह छोटा का कहना भी मानते है 
इतने अच्छे होते है 

इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते है हम 
और मिलते ही 
उन्हें ले आते है घर 
अक्सर 
तीस रुपए महीने और खाने पर    


ज़िंदा लोग 

ज़िंदा लोग ज़्यादा देर इंतज़ार नहीं करते 
इंतज़ार तो लाशे भी नहीं करती है 
एक दिन 
हद से हद दो दिन 
बस 
 हवा में उड़ने लगती है 

पीछा करती घेरती 
सीने पर हो जाती है सवार और 
वसूल करके  छोड़ती है  जायज़ न जायज़ हको को 

लाशो को हमसे ज़्यादा हवा चाहिए 
उन्हें हमसे ज़्यादा पानी चाहिए 
उन्हें हमसे ज़्यादा बर्फ चाहिए 
उन्हें हमसे ज़्यादा आग चाहिए 
उन्हें चाहिए इतिहास में हमसे ज़्यादा जगह 
इससे पहले कि पहले की वह घेर ले सारी जगह
मैं कहता हूँ कि 
इंतज़ार करती होंगी नदियां बारिश का 
वर्ष भर 
वसंत का  इंतज़ार करते होंगे वृक्ष 
लेकिन लोग 
ज़िदा लोग
ज़्यादा देर इंतज़ार  नहीं करते है 

  रात भर 

रात भर चलती है रेलें 
ट्रक ढोते है माल रात भर 
कारखाने चलते है 

कामगार रहते बेहोश 
होशमंद करवट बदलते है रात भर 
अपराधी सोते है  
अपराधों का कोई सम्बन्ध अब 
अँधेरे से नहीं रहा 

सुबह सभी दफ्तर खुलते है अपराध के  




" भवन्ति " - संम्पादक के जीने की ज़रूरत।

                " भवन्ति '' - संम्पादक के जीने की ज़रूरत। मैंने " भवन्ति " के बारे में सुना और जाना कि ...