Saturday 22 July 2017

' कफ़न ' में बुनता हिंदी रंगमंच का भविष्य और अदनान बिस्मिल्लाह

कफ़न में बुनता हिंदी रंगमंच का भविष्य और अदनान बिस्मिल्लाह                                                                                                                                
                                                                                                                          -.                               
कैफ़ी हाश्मी -


   अदनान बिस्मिल्लाह हिंदी रंगमंच की दुनिया में ऐसा नाम है जो कभी चकाचोंध की दुनिया में नहीं रहा, मगर उनके नाम की गूंज सर्वत्र अपनी दिशाऐ तलाश लेती है। अदनान बिस्मिल्लाह का संपूर्ण रंगमंच एक प्रयोग है। प्रयोग के बरक्स वे किस्सागोई करते हुए नाटक की मूल संवेदना तक पहुँचते है। यह प्रयोग केवल अभिनय तक ही सीमित नहीं होता है बल्कि पात्रों की रूप सज्जा, प्रकाश व्यवस्था से लेकर मंच के संपूर्ण आवरण तक फैला रहता है। ऐसी ही उनकी एक प्रस्तुति है- " कफ़न"


कफ़न प्रेमचंद की सबसे सुप्रसिद्ध कहानियो में से एक है। कफ़न को पढ़ते समय एकबारगी यह महसूस ज़रूर होता है कि इसे खेलना क्या सच में समंभव है ? इस सवाल का जवाब निर्देशक का सामर्थ्य ही दे सकता है। निर्देशक ये सामर्थ्य नाटक की निजी विशेषता के रूप में सामने आता है। वह है - इसका नैरेशन । मंच पर नज़र आने वाले कलाकार अभिनेता भी है और नैरेटर भी। वे एक क्षण में जहाँ अपने एक पात्र को जी रहे होते है वहीँ दूसरे क्षण में वे किस्सागोह होते हैं। प्रसव वेदना से पीड़ित बुधिया कब कहानी कहने लगेगी और ठाकुर के पैरों पर रोते-रोते कब घीसू और माधव नाटक को नैरेट करने लग जायेगें, इसका अंदाज़ा लगा पाना दर्शकों के लिए निस्संदेह मुश्किल होता है।


वास्तव में कफ़न भावनाओं का समंदर है। हिंदी कहानियों की बात की जाये तो यह अपने आप में एकमात्र ऐसी कहानी है जो दुःख, विषाद, विडंबना, हर्ष , तृप्ति, हास्य, आंनद जैसे अनेक भावो को अपने भीतर समेटे कर चलती है। ऐसे में सबसे बड़ी चुनौती निर्देशक के सामने होती है कि  वह किस प्रकार इन भावो को बिना गडमड किये इनके वास्तविक अर्थ में प्रस्तुत करे। अदनान बिस्मिल्लाह 'कफ़न' के नाट्ये रूपांतरण में न केवल इन चुनौतियों पर विजय प्राप्त करते हैं बल्कि अपने प्रयोगात्मक तेवर से हिंदी रंगमंच को नया रास्ता भी दिखाते हैं। यह प्रयोगात्मकता नाटक के संपूर्ण-विधान में आरम्भ से लेकर अंत तक व्याप्त है ।


    यह प्रयोगात्मकता दर्शकों को हैरत में डाल देती है कि किस प्रकार पात्रों के ज़रिये अभिनीत प्रत्येक भाव अथवा द्रशय मंच पर रखे शीशे पर चित्रित हो रहा है। दरअसल फाइन आर्ट्स के कलाकर मंच पर प्रत्येक भाव या द्रश्य के अनुरूप चित्र बना रहा होते है जो प्रकाश व्यवस्था के कारण दर्शकों से ओझल रहते हैं। 
     


ऐसा ही एक और प्रयोग मुक्तिबोध की कविता ' अंधेरे में ' के रूप में किया गया है। घीसू और माधव जब-जब अपने जीवन की सार्थकता के प्रश्न में उलझते है। मंच पर नृत्यांगनाओ के ज़रिय ' अँधेरे में ' कविता पर नृत्य किया जाता है। इस नृत्य में प्रकाश व्यवस्था जल्दी-जल्दी बदलती है जो जीवन के क्षण-क्षण बदलने का प्रतीक है। ऊपर जिन भावनाओ के गडमड होने की आकांशा जताई गयी थी, उसका समाधान ही यह कविता और नृत्य है जो प्रत्येक भाव को एक-दूसरे से पृथक रखता है। कविता सम्पात, नृत्य सम्पात पुनः घीसू और माधव अपने मद में लौट आते है लेकिन तबतक कविता के शब्द ' अब तक क्या जीया, जीवन क्या जिया '' घीसू और माधव के प्रत्येक व्यंग्य को विडंबना की ओर धकेल चुके होते है और दर्शक नाटक में तबतक खोया रहता है जब तक घीसू और माधव नशे में चूर होकर  गिर नहीं आ जाते ।


      कम शब्दों में, कफ़न एक यात्रा है जिसका प्रत्येक पड़ाव हिंदी रंगमंच के सुनहरे भविष्य की कहानी कहता है। जब तक कफ़न जैसे नाटक खेले जाते रहेंगे , हिंदी रंगमंच में सम्भवना बची रहेगी ।












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