Monday 27 May 2019

" भवन्ति " - संम्पादक के जीने की ज़रूरत।








   
            " भवन्ति '' - संम्पादक के जीने की ज़रूरत।



मैंने " भवन्ति " के बारे में सुना और जाना कि प्रेम भारद्वाज नई पत्रिका निकाल रहे है और क्यों निकाल रहे है यह भी जाना कि वो क्या विचार रहा जिसने एक नई पत्रिका को जन्म देने के लिए मजबूर किया। इसे मैंने द्वितीय विश्व युद्ध पर आधारित रशियन फिल्म - " बैलेड ऑफ़ ए सोल्डर " से जोड़कर समझ पाया। युद्ध के माहौल में एक बच्चा अपनी जान बचाने के लिए चलती हुई मालगाड़ी के एक डब्बे में चढ़ जाता है और जिस डिब्बे में जाकर वह छिपता है वहीं एक छोटी बच्ची भी छिपी होती है। भूख-प्यास से बिलखती हुई, ख़ौफ़ज़दा। दोनों का ख़ौफ़ज़दा होना दोनों को एक ही भावनात्मक स्तर पर ले आता है। ट्रैन चल रही होती है कि अचानक ट्रैन के सामने एक टैंक नाजियों का आ रहा होता है। वह सोचता है कि यह टैंक ट्रैन से टकरा गया तो हम मर जाएंगे। हम अर्थात मैं और छोटी बच्ची। जान बचाने की तरकीबें दोनों खूब सोचते है। कभी ईश्वर से प्राथनाएं तो कभी ट्रैन से कूद जाने के साहस भरे प्रयास किन्तु असफल। टैंक अपनी रफ़्तार से मालगाड़ी के नज़दीक आ रहा होता है। दोनों के अंदर डर बढ़ने लगता है। उसे अपने और बच्ची के जीवन का अंत होता नज़र आता है कि यकायक नज़र उसकी पास मैं पड़े हुए ग्रेनेड के टुकड़ों पर पढ़ती है। वह उनको उठता है और बचते-बचाते हुए हाथ में लिए हुए ग्रेनेड को टैंक पर डाल देता है। टैंक उड़ जाता है। नाजियों के इस टैंक के उड़ जाने से युद्ध में भारी परिवर्तन आता है क्योंकि ट्रैन के सही-सलामत पहुँच जाने से रूस के पास हथियारों की पूर्ति हो जाती है। रूस युद्ध जीत जाता है। उस बच्चे को वीरता का पुरस्कार मिलता है। पुरस्कार मिलते वक़्त एक पत्रकार बच्चे से सवाल करता है - " इतना साहस कैसे आया तुम्हारे अंदर ? " बच्चे ने एक पंक्ति में जवाब दिया " क्योंकि मैं डरा हुआ था क्योंकि मैं जीना चाहता था। "

जीने रहने की कोशिश का नतीजा है " भवन्ति " जो हम सबके सामने है अपने दौर के सुलगते सवालों के साथ और उससे भी ज़्यादा उसके सुलगते हुए संम्पादकीय के साथ। इस पत्रिका की खासियत होंगे इसके संपादकीय - रोचक और प्रयोगिक।

बहुत कम ऐसे संपादक होते है जिनके अल्फ़ाज़ पत्रिका से लगाव पैदा करवा पाए। पत्रिका का संपादकीय और पाठक के बीच उसी तरह का संबंध होता है जिस तरह का एक अध्यापक और बच्चे के बीच। जितने प्रयोगिक अध्यापक होते है, उतने रचनात्मक उनके छात्र निकलते है। संपादकीय मेरे लिए किसी अध्यापक से कम नहीं। मैं पत्रिका के संपादकीय से जुड़ता हूँ। उसके अंदर छपे हुए किस्से, कहानियाँ, कविताएँ, लेख और आदि-इत्यादि से नहीं। छपने-छापने के रहस्यात्मक तरीकों से अच्छी तरह चिर-परिचित बहुत जल्दी हो गया था इसलिय मैं अब पत्रिका संम्पादकीय देखकर ही लेता हूँ क्योंकि मेरी नज़र में वो पत्रिका कारगर साबित नहीं हो सकती है जिसका संपादकीय पढ़ने के बाद पाठक के अंदर चाय की तरह न उबलने लगे। ऐसे संपादक मेरे लिए दो ही है - राजेंद्र यादव और प्रेम भारद्वाज। कमाल के संम्पादकीय लिखे है राजेंद्र यादव जी ने। हंस को इतनी ऊंचाइयों पर पुहँचाने के पीछे जो राज़ है वो  राजेंद्र यादव के संपादकीय ही है। मैंने लाइब्रेरी से ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़े है और जब वह नहीं रहे, मेरा पत्रिका से नाता टूट गया। जब मैंने पत्रिकाओं से अपनी उदासीनता की बात अपने एक सीनियर के सामने रखी तो उन्होंने " पाखी " पत्रिका पढ़ने के लिए कहा। मैं दीवाना हो गया। पत्रिका खोलते ही " हाशिए पर हर्फ़ " नाम से संपादकीय। हर्फ़ नहीं अपने समय के सुलगती हुई फैंटेसी का एहसास। बाते इतनी सपाट और तेज़ और घुमावदार। तीखे व्यंग और कलात्मक और भाषा के ताज़ातरीन प्रयोग। विचारों को अनूठे अंदाज़ में पेश करना का सलीका। मैं मोहित हुआ था। पूरी पत्रिका न पढ़कर कई-कई बार मैंने संम्पादकीय पढ़े। मगर अचानक से पाखी की रंगत बिगड़ने लगी। कारण कुछ भी रहा हो। वो भी और पत्रिकाओं की तरह नीरस और " हिंदी-साहित्य " की पत्रिका होकर रह गई। पत्रिकाओं ने जब-जब " हिंदी-साहित्य " की पत्रिका होने के दम्भ को मेरे अंदर दर्ज कराया, मैंने पत्रिका को पढ़ना छोड़ दिया।

मैं खुश हूँ पत्रिका को पढ़कर और उम्मीद करता हूँ कि यह " हिंदी-साहित्य " की बैठकी वाली पत्रिका न बन जाए वर्ना मेरे जैसे युवा पाठकों के लिए प्रिंट पत्रिका का अस्तित्व मोदी जी की रडार में नज़र आने लगेगा।

- अहमद फहीम

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