Monday 27 May 2019

" भवन्ति " - संम्पादक के जीने की ज़रूरत।








   
            " भवन्ति '' - संम्पादक के जीने की ज़रूरत।



मैंने " भवन्ति " के बारे में सुना और जाना कि प्रेम भारद्वाज नई पत्रिका निकाल रहे है और क्यों निकाल रहे है यह भी जाना कि वो क्या विचार रहा जिसने एक नई पत्रिका को जन्म देने के लिए मजबूर किया। इसे मैंने द्वितीय विश्व युद्ध पर आधारित रशियन फिल्म - " बैलेड ऑफ़ ए सोल्डर " से जोड़कर समझ पाया। युद्ध के माहौल में एक बच्चा अपनी जान बचाने के लिए चलती हुई मालगाड़ी के एक डब्बे में चढ़ जाता है और जिस डिब्बे में जाकर वह छिपता है वहीं एक छोटी बच्ची भी छिपी होती है। भूख-प्यास से बिलखती हुई, ख़ौफ़ज़दा। दोनों का ख़ौफ़ज़दा होना दोनों को एक ही भावनात्मक स्तर पर ले आता है। ट्रैन चल रही होती है कि अचानक ट्रैन के सामने एक टैंक नाजियों का आ रहा होता है। वह सोचता है कि यह टैंक ट्रैन से टकरा गया तो हम मर जाएंगे। हम अर्थात मैं और छोटी बच्ची। जान बचाने की तरकीबें दोनों खूब सोचते है। कभी ईश्वर से प्राथनाएं तो कभी ट्रैन से कूद जाने के साहस भरे प्रयास किन्तु असफल। टैंक अपनी रफ़्तार से मालगाड़ी के नज़दीक आ रहा होता है। दोनों के अंदर डर बढ़ने लगता है। उसे अपने और बच्ची के जीवन का अंत होता नज़र आता है कि यकायक नज़र उसकी पास मैं पड़े हुए ग्रेनेड के टुकड़ों पर पढ़ती है। वह उनको उठता है और बचते-बचाते हुए हाथ में लिए हुए ग्रेनेड को टैंक पर डाल देता है। टैंक उड़ जाता है। नाजियों के इस टैंक के उड़ जाने से युद्ध में भारी परिवर्तन आता है क्योंकि ट्रैन के सही-सलामत पहुँच जाने से रूस के पास हथियारों की पूर्ति हो जाती है। रूस युद्ध जीत जाता है। उस बच्चे को वीरता का पुरस्कार मिलता है। पुरस्कार मिलते वक़्त एक पत्रकार बच्चे से सवाल करता है - " इतना साहस कैसे आया तुम्हारे अंदर ? " बच्चे ने एक पंक्ति में जवाब दिया " क्योंकि मैं डरा हुआ था क्योंकि मैं जीना चाहता था। "

जीने रहने की कोशिश का नतीजा है " भवन्ति " जो हम सबके सामने है अपने दौर के सुलगते सवालों के साथ और उससे भी ज़्यादा उसके सुलगते हुए संम्पादकीय के साथ। इस पत्रिका की खासियत होंगे इसके संपादकीय - रोचक और प्रयोगिक।

बहुत कम ऐसे संपादक होते है जिनके अल्फ़ाज़ पत्रिका से लगाव पैदा करवा पाए। पत्रिका का संपादकीय और पाठक के बीच उसी तरह का संबंध होता है जिस तरह का एक अध्यापक और बच्चे के बीच। जितने प्रयोगिक अध्यापक होते है, उतने रचनात्मक उनके छात्र निकलते है। संपादकीय मेरे लिए किसी अध्यापक से कम नहीं। मैं पत्रिका के संपादकीय से जुड़ता हूँ। उसके अंदर छपे हुए किस्से, कहानियाँ, कविताएँ, लेख और आदि-इत्यादि से नहीं। छपने-छापने के रहस्यात्मक तरीकों से अच्छी तरह चिर-परिचित बहुत जल्दी हो गया था इसलिय मैं अब पत्रिका संम्पादकीय देखकर ही लेता हूँ क्योंकि मेरी नज़र में वो पत्रिका कारगर साबित नहीं हो सकती है जिसका संपादकीय पढ़ने के बाद पाठक के अंदर चाय की तरह न उबलने लगे। ऐसे संपादक मेरे लिए दो ही है - राजेंद्र यादव और प्रेम भारद्वाज। कमाल के संम्पादकीय लिखे है राजेंद्र यादव जी ने। हंस को इतनी ऊंचाइयों पर पुहँचाने के पीछे जो राज़ है वो  राजेंद्र यादव के संपादकीय ही है। मैंने लाइब्रेरी से ढूँढ़-ढूँढ़कर पढ़े है और जब वह नहीं रहे, मेरा पत्रिका से नाता टूट गया। जब मैंने पत्रिकाओं से अपनी उदासीनता की बात अपने एक सीनियर के सामने रखी तो उन्होंने " पाखी " पत्रिका पढ़ने के लिए कहा। मैं दीवाना हो गया। पत्रिका खोलते ही " हाशिए पर हर्फ़ " नाम से संपादकीय। हर्फ़ नहीं अपने समय के सुलगती हुई फैंटेसी का एहसास। बाते इतनी सपाट और तेज़ और घुमावदार। तीखे व्यंग और कलात्मक और भाषा के ताज़ातरीन प्रयोग। विचारों को अनूठे अंदाज़ में पेश करना का सलीका। मैं मोहित हुआ था। पूरी पत्रिका न पढ़कर कई-कई बार मैंने संम्पादकीय पढ़े। मगर अचानक से पाखी की रंगत बिगड़ने लगी। कारण कुछ भी रहा हो। वो भी और पत्रिकाओं की तरह नीरस और " हिंदी-साहित्य " की पत्रिका होकर रह गई। पत्रिकाओं ने जब-जब " हिंदी-साहित्य " की पत्रिका होने के दम्भ को मेरे अंदर दर्ज कराया, मैंने पत्रिका को पढ़ना छोड़ दिया।

मैं खुश हूँ पत्रिका को पढ़कर और उम्मीद करता हूँ कि यह " हिंदी-साहित्य " की बैठकी वाली पत्रिका न बन जाए वर्ना मेरे जैसे युवा पाठकों के लिए प्रिंट पत्रिका का अस्तित्व मोदी जी की रडार में नज़र आने लगेगा।

- अहमद फहीम

Thursday 9 August 2018

भीष्म सहानी जन्म दिवस : अमृतसर आ गया

                       भीष्म सहानी जन्म दिवस
 
   
      कल भीष्म साहनी का जन्म दिवस था। उनकी कहानियों के बारे में सोच रहा था कि उनकी कहानियों नाटकीयता के रंग को एक अलग फ्लेवर में लेकर चलती है और वे है - संवादों की ज़िंदादिली । कहानी-सृजन में यह जिंदादिली बहुत प्रभावित करती हैं। संवाद का ऐसा ताना-बाना बहुत कम कहानीकारों के पास है। भीष्म साहनी संवादों की गोटियों को कहानी की पृष्ठभूमि में इस तरह उड़ेलते हैं कि कहानी में सजीवता के राग आ जाते है। सजीवता के कायाकल्प में बुनी इनकी कहानियाँ दर्शकों से मुठभेड़ करती नज़र आती है। मुठभेड़ का यह तरीका ही उनकी कहानियों को ऊँचाई देता है। किन्तु आजकल यह मुठभेड़ कहानियों में सिरे से ग़ायब है। यदि किसी युवा कथाकार मे यह सिफ्त है तो उसका.प्रयोग नहीं कर पाए है। उनके प्रयोग में  फीकापन मालूम होता है। दरअसल हम कह सकते है कि यही फीकापन आज की कहानी की भाषा है । फीकापन ही कहानी की आत्मा है जो एकात्म से सामूहिकता की ओर सफर कर रही है । लेकिन सवाल फिर भी है कि हिन्दी कहानियों के दर्शकों की वो.लंबी जमात कहाँ चली गई जो मुरीद हुआ करती थी.. ?
           
.                      ....     .........      ......    अहमद फहीम

                           अमृतसर आ गया
                             ( भीष्म सहानी )

        गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हँसते और गोरे फौजियों की खिल्ली उड़ाते रहे थे। डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने ऊपरवाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हँसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथवाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मजाक चल रहा था। वह दुबला बाबू पेशावर का रहनेवाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक्त वे आपस में पश्तो में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दाईं ओर कोने में, एक बुढ़िया मुँह-सिर ढाँपे बैठा थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। संभव है दो-एक और मुसाफिर भी रहे हों, पर वे स्पष्टत: मुझे याद नहीं।

गाड़ी धीमी रफ्तार से चली जा रही थी, और गाड़ी में बैठे मुसाफिर बतिया रहे थे और बाहर गेहूँ के खेतों में हल्की-हल्की लहरियाँ उठ रही थीं, और मैं मन-ही-मन बड़ा खुश था क्योंकि मैं दिल्ली में होनेवाला स्वतंत्रता-दिवस समारोह देखने जा रहा था।

उन दिनों के बारे में सोचता हूँ, तो लगता है, हम किसी झुटपुटे में जी रहे हैं। शायद समय बीत जाने पर अतीत का सारा व्यापार ही झुटपुटे में बीता जान पड़ता है। ज्यों-ज्यों भविष्य के पट खुलते जाते हैं, यह झुटपुटा और भी गहराता चला जाता है।

उन्हीं दिनों पाकिस्तान के बनाए जाने का ऐलान किया गया था और लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने लगे थे कि भविष्य में जीवन की रूपरेखा कैसी होगी। पर किसी की भी कल्पना बहुत दूर तक नहीं जा पाती थी। मेरे सामने बैठे सरदार जी बार-बार मुझसे पूछ रहे थे कि पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहिब बंबई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जा कर बस जाएँगे, और मेरा हर बार यही जवाब होता - बंबई क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बंबई छोड़ देने में क्या तुक है! लाहौर और गुरदासपुर के बारे में भी अनुमान लगाए जा रहे थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा। मिल बैठने के ढंग में, गप-शप में, हँसी-मजाक में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। कुछ लोग अपने घर छोड़ कर जा रहे थे, जबकि अन्य लोग उनका मजाक उड़ा रहे थे। कोई नहीं जानता था कि कौन-सा कदम ठीक होगा और कौन-सा गलत। एक ओर पाकिस्तान बन जाने का जोश था तो दूसरी ओर हिंदुस्तान के आजाद हो जाने का जोश। जगह-जगह दंगे भी हो रहे थे, और योम-ए-आजादी की तैयारियाँ भी चल रही थीं। इस पूष्ठभूमि में लगता, देश आजाद हो जाने पर दंगे अपने-आप बंद हो जाएँगे। वातावरण में इस झुटपुट में आजादी की सुनहरी धूल-सी उड़ रही थी और साथ-ही-साथ अनिश्चय भी डोल रहा था, और इसी अनिश्चय की स्थिति में किसी-किसी वक्त भावी रिश्तों की रूपरेखा झलक दे जाती थी।

शायद जेहलम का स्टेशन पीछे छूट चुका था जब ऊपर वाली बर्थ पर बैठे पठान ने एक पोटली खोल ली और उसमें से उबला हुआ मांस और नान-रोटी के टुकड़े निकाल-निकाल कर अपने साथियों को देने लगा। फिर वह हँसी-मजाक के बीच मेरी बगल में बैठे बाबू की ओर भी नान का टुकड़ा और मांस की बोटी बढ़ा कर खाने का आग्रह करने लगा था - 'का ले, बाबू, ताकत आएगी। अम जैसा ओ जाएगा। बीवी बी तेरे सात कुश रएगी। काले दालकोर, तू दाल काता ए, इसलिए दुबला ए...'

डिब्बे में लोग हँसने लगे थे। बाबू ने पश्तो में कुछ जवाब दिया और फिर मुस्कराता सिर हिलाता रहा।

इस पर दूसरे पठान ने हँस कर कहा - 'ओ जालिम, अमारे हाथ से नई लेता ए तो अपने हाथ से उठा ले। खुदा कसम बकरे का गोश्त ए, और किसी चीज का नईए।'

ऊपर बैठा पठान चहक कर बोला - 'ओ खंजीर के तुम, इदर तुमें कौन देखता ए? अम तेरी बीवी को नई बोलेगा। ओ तू अमारे साथ बोटी तोड़। अम तेरे साथ दाल पिएगा...'

इस पर कहकहा उठा, पर दुबला-पतला बाबू हँसता, सिर हिलाता रहा और कभी-कभी दो शब्द पश्तो में भी कह देता।

'ओ कितना बुरा बात ए, अम खाता ए, और तू अमारा मुँ देखता ए...' सभी पठान मगन थे।

'यह इसलिए नहीं लेता कि तुमने हाथ नहीं धोए हैं,' स्थूलकाय सरदार जी बोले और बोलते ही खी-खी करने लगे! अधलेटी मुद्रा में बैठे सरदार जी की आधी तोंद सीट के नीचे लटक रही थी - 'तुम अभी सो कर उठे हो और उठते ही पोटली खोल कर खाने लग गए हो, इसीलिए बाबू जी तुम्हारे हाथ से नहीं लेते, और कोई बात नहीं।' और सरदार जी ने मेरी ओर देख कर आँख मारी और फिर खी-खी करने लगे।

'मांस नई खाता ए, बाबू तो जाओ जनाना डब्बे में बैटो, इदर क्या करता ए?' फिर कहकहा उठा।

डब्बे में और भी अनेक मुसाफिर थे लेकिन पुराने मुसाफिर यही थे जो सफर शुरू होने में गाड़ी में बैठे थे। बाकी मुसाफिर उतरते-चढ़ते रहे थे। पुराने मुसाफिर होने के नाते उनमें एक तरह की बेतकल्लुफी आ गई थी।

'ओ इदर आ कर बैठो। तुम अमारे साथ बैटो। आओ जालिम, किस्सा-खानी की बातें करेंगे।'

तभी किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी और नए मुसाफिरों का रेला अंदर आ गया था। बहुत-से मुसाफिर एक साथ अंदर घुसते चले आए थे।

'कौन-सा स्टेशन है?' किसी ने पूछा।

'वजीराबाद है शायद,' मैंने बाहर की ओर देख कर कहा।

गाड़ी वहाँ थोड़ी देर के लिए खड़ी रही। पर छूटने से पहले एक छोटी-सी घटना घटी। एक आदमी साथ वाले डिब्बे में से पानी लेने उतरा और नल पर जा कर पानी लोटे में भर रहा था तभी वह भाग कर अपने डिब्बे की ओर लौट आया। छलछलाते लोटे में से पानी गिर रहा था। लेकिन जिस ढंग से वह भागा था, उसी ने बहुत कुछ बता दिया था। नल पर खड़े और लोग भी, तीन-चार आदमी रहे होंगे - इधर-उधर अपने-अपने डिब्बे की ओर भाग गए थे। इस तरह घबरा कर भागते लोगों को मैं देख चुका था। देखते-ही-देखते प्लेटफार्म खाली हो गया। मगर डिब्बे के अंदर अभी भी हँसी-मजाक चल रहा था।

'कहीं कोई गड़बड़ है,' मेरे पास बैठे दुबले बाबू ने कहा।

कहीं कुछ था, लेकिन क्या था, कोई भी स्पष्ट नहीं जानता था। मैं अनेक दंगे देख चुका था इसलिए वातावरण में होने वाली छोटी-सी तबदील को भी भाँप गया था। भागते व्यक्ति, खटाक से बंद होते दरवाजे, घरों की छतों पर खड़े लोग, चुप्पी और सन्नाटा, सभी दंगों के चिह्न थे।

तभी पिछले दरवाजे की ओर से, जो प्लेटफार्म की ओर न खुल कर दूसरी ओर खुलता था, हल्का-सा शोर हुआ। कोई मुसाफिर अंदर घुसना चाह रहा था।

'कहाँ घुसा आ रहा है, नहीं है जगह! बोल दिया जगह नहीं है,' किसी ने कहा।

'बंद करो जी दरवाजा। यों ही मुँह उठाए घुसे आते हैं।' आवाजें आ रही थीं।

जितनी देर कोई मुसाफिर डिब्बे के बाहर खड़ा अंदर आने की चेष्टा करता रहे, अंदर बैठे मुसाफिर उसका विरोध करते रहते हैं। पर एक बार जैसे-तैसे वह अंदर जा जाए तो विरोध खत्म हो जाता है, और वह मुसाफिर जल्दी ही डिब्बे की दुनिया का निवासी बन जाता है, और अगले स्टेशन पर वही सबसे पहले बाहर खड़े मुसाफिरों पर चिल्लाने लगता है - नहीं है जगह, अगले डिब्बे में जाओ... घुसे आते हैं...

दरवाजे पर शोर बढ़ता जा रहा था। तभी मैले-कुचैले कपड़ों और लटकती मूँछों वाला एक आदमी दरवाजे में से अंदर घुसता दिखाई दिया। चीकट, मैले कपड़े, जरूर कहीं हलवाई की दुकान करता होगा। वह लोगों की शिकायतों-आवाजों की ओर ध्यान दिए बिना दरवाजे की ओर घूम कर बड़ा-सा काले रंग का संदूक अंदर की ओर घसीटने लगा।

'आ जाओ, आ जाओ, तुम भी चढ़ जाओ! वह अपने पीछे किसी से कहे जा रहा था। तभी दरवाजे में एक पतली सूखी-सी औरत नजर आई और उससे पीछे सोलह-सतरह बरस की साँवली-सी एक लड़की अंदर आ गई। लोग अभी भी चिल्लाए जा रहे थे। सरदार जी को कूल्हों के बल उठ कर बैठना पड़ा।'

'बंद करो जी दरवाजा, बिना पूछे चढ़े आते हैं, अपने बाप का घर समझ रखा है। मत घुसने दो जी, क्या करते हो, धकेल दो पीछे...' और लोग भी चिल्ला रहे थे।

वह आदमी अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था और उसकी पत्नी और बेटी संडास के दरवाजे के साथ लग कर खड़े थे।

'और कोई डिब्बा नहीं मिला? औरत जात को भी यहाँ उठा लाया है?'

वह आदमी पसीने से तर था और हाँफता हुआ सामान अंदर घसीटे जा रहा था। संदूक के बाद रस्सियों से बँधी खाट की पाटियाँ अंदर खींचने लगा।

'टिकट है जी मेरे पास, मैं बेटिकट नहीं हूँ।' इस पर डिब्बे में बैठे बहुत-से लोग चुप हो गए, पर बर्थ पर बैठा पठान उचक कर बोला - 'निकल जाओ इदर से, देखता नई ए, इदर जगा नई ए।'

और पठान ने आव देखा न ताव, आगे बढ़ कर ऊपर से ही उस मुसाफिर के लात जमा दी, पर लात उस आदमी को लगने के बजाए उसकी पत्नी के कलेजे में लगी और वहीं 'हाय-हाय' करती बैठ गई।

उस आदमी के पास मुसाफिरों के साथ उलझने के लिए वक्त नहीं था। वह बराबर अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था। पर डिब्बे में मौन छा गया। खाट की पाटियों के बाद बड़ी-बड़ी गठरियाँ आईं। इस पर ऊपर बैठे पठान की सहन-क्षमता चुक गई। 'निकालो इसे, कौन ए ये?' वह चिल्लाया। इस पर दूसरे पठान ने, जो नीचे की सीट पर बैठा था, उस आदमी का संदूक दरवाजे में से नीचे धकेल दिया, जहाँ लाल वर्दीवाला एक कुली खड़ा सामान अंदर पहुँचा रहा था।

उसकी पत्नी के चोट लगने पर कुछ मुसाफिर चुप हो गए थे। केवल कोने में बैठो बुढ़िया करलाए जा रही थी - 'ए नेकबख्तो, बैठने दो। आ जा बेटी, तू मेरे पास आ जा। जैसे-तैसे सफर काट लेंगे। छोड़ो बे जालिमो, बैठने दो।'

अभी आधा सामान ही अंदर आ पाया होगा जब सहसा गाड़ी सरकने लगी।

'छूट गया! सामान छूट गया।' वह आदमी बदहवास-सा हो कर चिल्लाया।

'पिताजी, सामान छूट गया।' संडास के दरवाजे के पास खड़ी लड़की सिर से पाँव तक काँप रही थी और चिल्लाए जा रही थी।

'उतरो, नीचे उतरो,' वह आदमी हड़बड़ा कर चिल्लाया और आगे बढ़ कर खाट की पाटियाँ और गठरियाँ बाहर फेंकते हुए दरवाजे का डंडहरा पकड़ कर नीचे उतर गया। उसके पीछे उसकी व्याकुल बेटी और फिर उसकी पत्नी, कलेजे को दोनों हाथों से दबाए हाय-हाय करती नीचे उतर गई।

'बहुत बुरा किया है तुम लोगों ने, बहुत बुरा किया है।' बुढ़िया ऊँचा-ऊँचा बोल रही थी -'तुम्हारे दिल में दर्द मर गया है। छोटी-सी बच्ची उसके साथ थी। बेरहमो, तुमने बहुत बुरा किया है, धक्के दे कर उतार दिया है।'

गाड़ी सूने प्लेटफार्म को लाँघती आगे बढ़ गई। डिब्बे में व्याकुल-सी चुप्पी छा गई। बुढ़िया ने बोलना बंद कर दिया था। पठानों का विरोध कर पाने की हिम्मत नहीं हुई।

तभी मेरी बगल में बैठे दुबले बाबू ने मेरे बाजू पर हाथ रख कर कहा - 'आग है, देखो आग लगी है।'

गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ कर आगे निकल आई थी और शहर पीछे छूट रहा था। तभी शहर की ओर से उठते धुएँ के बादल और उनमें लपलपाती आग के शोले नजर आने लगे।

'दंगा हुआ है। स्टेशन पर भी लोग भाग रहे थे। कहीं दंगा हुआ है।'

शहर में आग लगी थी। बात डिब्बे-भर के मुसाफिरों को पता चल गई और वे लपक-लपक कर खिड़कियों में से आग का दृश्य देखने लगे।

जब गाड़ी शहर छोड़ कर आगे बढ़ गई तो डिब्बे में सन्नाटा छा गया। मैंने घूम कर डिब्बे के अंदर देखा, दुबले बाबू का चेहरा पीला पड़ गया था और माथे पर पसीने की परत किसी मुर्दे के माथे की तरह चमक रही थी। मुझे लगा, जैसे अपनी-अपनी जगह बैठे सभी मुसाफिरों ने अपने आसपास बैठे लोगों का जायजा ले लिया है। सरदार जी उठ कर मेरी सीट पर आ बैठे। नीचे वाली सीट पर बैठा पठान उठा और अपने दो साथी पठानों के साथ ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गया। यही क्रिया शायद रेलगाड़ी के अन्य डिब्बों में भी चल रही थी। डिब्बे में तनाव आ गया। लोगों ने बतियाना बंद कर दिया। तीनों-के-तीनों पठान ऊपरवाली बर्थ पर एक साथ बैठे चुपचाप नीचे की ओर देखे जा रहे थे। सभी मुसाफिरों की आँखें पहले से ज्यादा खुली-खुली, ज्यादा शंकित-सी लगीं। यही स्थिति संभवत: गाड़ी के सभी डिब्बों में व्याप्त हो रही थी।

'कौन-सा स्टेशन था यह?' डिब्बे में किसी ने पूछा।

'वजीराबाद,' किसी ने उत्तर दिया।

जवाब मिलने पर डिब्बे में एक और प्रतिक्रिया हुई। पठानों के मन का तनाव फौरन ढीला पड़ गया। जबकि हिंदू-सिक्ख मुसाफिरों की चुप्पी और ज्यादा गहरी हो गई। एक पठान ने अपनी वास्कट की जेब में से नसवार की डिबिया निकाली और नाक में नसवार चढ़ाने लगा। अन्य पठान भी अपनी-अपनी डिबिया निकाल कर नसवार चढ़ाने लगे। बुढ़िया बराबर माला जपे जा रही थी। किसी-किसी वक्त उसके बुदबुदाते होंठ नजर आते, लगता, उनमें से कोई खोखली-सी आवाज निकल रही है।

अगले स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो वहाँ भी सन्नाटा था। कोई परिंदा तक नहीं फड़क रहा था। हाँ, एक भिश्ती, पीठ पर पानी की मशकल लादे, प्लेटफार्म लाँघ कर आया और मुसाफिरों को पानी पिलाने लगा।

'लो, पियो पानी, पियो पानी।' औरतों के डिब्बे में से औरतों और बच्चों के अनेक हाथ बाहर निकल आए थे।

'बहुत मार-काट हुई है, बहुत लोग मरे हैं। लगता था, वह इस मार-काट में अकेला पुण्य कमाने चला आया है।'

गाड़ी सरकी तो सहसा खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे। दूर-दूर तक, पहियों की गड़गड़ाहट के साथ, खिड़कियों के पल्ले चढ़ाने की आवाज आने लगी।

किसी अज्ञात आशंकावश दुबला बाबू मेरे पासवाली सीट पर से उठा और दो सीटों के बीच फर्श पर लेट गया। उसका चेहरा अभी भी मुर्दे जैसा पीला हो रहा था। इस पर बर्थ पर बैठा पठान उसकी ठिठोली करने लगा - 'ओ बेंगैरत, तुम मर्द ए कि औरत ए? सीट पर से उट कर नीचे लेटता ए। तुम मर्द के नाम को बदनाम करता ए।' वह बोल रहा था और बार-बार हँसे जा रहा था। फिर वह उससे पश्तो में कुछ कहने लगा। बाबू चुप बना लेटा रहा। अन्य सभी मुसाफिर चुप थे। डिब्बे का वातावरण बोझिल बना हुआ था।

'ऐसे आदमी को अम डिब्बे में नईं बैठने देगा। ओ बाबू, अगले स्टेशन पर उतर जाओ, और जनाना डब्बे में बैटो।'

मगर बाबू की हाजिरजवाबी अपने कंठ में सूख चली थी। हकला कर चुप हो रहा। पर थोड़ी देर बाद वह अपने आप उठ कर सीट पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धूल झाड़ता रहा। वह क्यों उठ कर फर्श पर लेट गया था? शायद उसे डर था कि बाहर से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जा रहे थे।

कुछ भी कहना कठिन था। मुमकिन है किसी एक मुसाफिर ने किसी कारण से खिड़की का पल्ला चढ़ाया हो। उसकी देखा-देखी, बिना सोचे-समझे, धड़ाधड़ खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे थे।

बोझिल अनिश्चत-से वातावरण में सफर कटने लगा। रात गहराने लगी थी। डिब्बे के मुसाफिर स्तब्ध और शंकित ज्यों-के-त्यों बैठे थे। कभी गाड़ी की रफ्तार सहसा टूट कर धीमी पड़ जाती तो लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगते। कभी रास्ते में ही रुक जाती तो डिब्बे के अंदर का सन्नाटा और भी गहरा हो उठता। केवल पठान निश्चित बैठे थे। हाँ, उन्होंने भी बतियाना छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी बातचीत में कोई भी शामिल होने वाला नहीं था।

धीरे-धीरे पठान ऊँघने लगे जबकि अन्य मुसाफिर फटी-फटी आँखों से शून्य में देखे जा रहे थे। बुढ़िया मुँह-सिर लपेटे, टाँगें सीट पर चढ़ाए, बैठा-बैठा सो गई थी। ऊपरवाली बर्थ पर एक पठान ने, अधलेटे ही, कुर्ते की जेब में से काले मनकों की तसबीह निकाल ली और उसे धीरे-धीरे हाथ में चलाने लगा।

खिड़की के बाहर आकाश में चाँद निकल आया और चाँदनी में बाहर की दुनिया और भी अनिश्चित, और भी अधिक रहस्यमयी हो उठी। किसी-किसी वक्त दूर किसी ओर आग के शोले उठते नजर आते, कोई नगर जल रहा था। गाड़ी किसी वक्त चिंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती, फिर किसी वक्त उसकी रफ्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी रफ्तार से ही चलती रहती।

सहसा दुबला बाबू खिड़की में से बाहर देख कर ऊँची आवाज में बोला - 'हरबंसपुरा निकल गया है।' उसकी आवाज में उत्तेजना थी, वह जैसे चीख कर बोला था। डिब्बे के सभी लोग उसकी आवाज सुन कर चौंक गए। उसी वक्त डिब्बे के अधिकांश मुसाफिरों ने मानो उसकी आवाज को ही सुन कर करवट बदली।

'ओ बाबू, चिल्लाता क्यों ए?', तसबीह वाला पठान चौंक कर बोला - 'इदर उतरेगा तुम? जंजीर खींचूँ?' अैर खी-खी करके हँस दिया। जाहिर है वह हरबंसपुरा की स्थिति से अथवा उसके नाम से अनभिज्ञ था।

बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिर हिला दिया और एक-आध बार पठान की ओर देख कर फिर खिड़की के बाहर झाँकने लगा।

डब्बे में फिर मौन छा गया। तभी इंजन ने सीटी दी और उसकी एकरस रफ्तार टूट गई। थोड़ी ही देर बाद खटाक-का-सा शब्द भी हुआ। शायद गाड़ी ने लाइन बदली थी। बाबू ने झाँक कर उस दिशा में देखा जिस ओर गाड़ी बढ़ी जा रही थी।

'शहर आ गया है।' वह फिर ऊँची आवाज में चिल्लाया - 'अमृतसर आ गया है।' उसने फिर से कहा और उछल कर खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को संबोधित करके चिल्लाया - 'ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर तेरी माँ की... नीचे उतर, तेरी उस पठान बनानेवाले की मैं...'

बाबू चिल्लाने लगा और चीख-चीख कर गालियाँ बकने लगा था। तसबीह वाले पठान ने करवट बदली और बाबू की ओर देख कर बोला -'ओ क्या ए बाबू? अमको कुच बोला?'

बाबू को उत्तेजित देख कर अन्य मुसाफिर भी उठ बैठे।

'नीचे उतर, तेरी मैं... हिंदू औरत को लात मारता है! हरामजादे! तेरी उस...।'

'ओ बाबू, बक-बकर नई करो। ओ खजीर के तुख्म, गाली मत बको, अमने बोल दिया। अम तुम्हारा जबान खींच लेगा।'

'गाली देता है मादर...।' बाबू चिल्लाया और उछल कर सीट पर चढ़ गया। वह सिर से पाँव तक काँप रहा था।

'बस-बस।' सरदार जी बोले - 'यह लड़ने की जगह नहीं है। थोड़ी देर का सफर बाकी है, आराम से बैठो।'

'तेरी मैं लात न तोड़ूँ तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है?' बाबू चिल्लाया।

'ओ अमने क्या बोला! सबी लोग उसको निकालता था, अमने बी निकाला। ये इदर अमको गाली देता ए। अम इसका जबान खींच लेगा।'

बुढ़िया बीच में फिर बोले उठी - 'वे जीण जोगयो, अराम नाल बैठो। वे रब्ब दिए बंदयो, कुछ होश करो।'

उसके होंठ किसी प्रेत की तरह फड़फड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी।

बाबू चिल्लाए जा रहा था - 'अपने घर में शेर बनता था। अब बोल, तेरी मैं उस पठान बनानेवाले की...।'

तभी गाड़ी अमृतसर के प्लेटफार्म पर रुकी। प्लेटफार्म लोगों से खचाखच भरा था। प्लेटफार्म पर खड़े लोग झाँक-झाँक कर डिब्बों के अंदर देखने लगे। बार-बार लोग एक ही सवाल पूछ रहे थे - 'पीछे क्या हुआ है? कहाँ पर दंगा हुआ है?'

खचाखच भरे प्लेटफार्म पर शायद इसी बात की चर्चा चल रही थी कि पीछे क्या हुआ है। प्लेटफार्म पर खड़े दो-तीन खोमचे वालों पर मुसाफिर टूटे पड़ रहे थे। सभी को सहसा भूख और प्यास परेशान करने लगी थी। इसी दौरान तीन-चार पठान हमारे डिब्बे के बाहर प्रकट हो गए और खिड़की में से झाँक-झाँक कर अंदर देखने लगे। अपने पठान साथियों पर नजर पड़ते ही वे उनसे पश्तो में कुछ बोलने लगे। मैंने घूम कर देखा, बाबू डिब्बे में नहीं था। न जाने कब वह डिब्बे में से निकल गया था। मेरा माथा ठिनका। गुस्से में वह पागल हुआ जा रहा था। न जाने क्या कर बैठे! पर इस बीच डिब्बे के तीनों पठान, अपनी-अपनी गठरी उठा कर बाहर निकल गए और अपने पठान साथियों के साथ गाड़ी के अगले डिब्बे की ओर बढ़ गए। जो विभाजन पहले प्रत्येक डिब्बे के भीतर होता रहा था, अब सारी गाड़ी के स्तर पर होने लगा था।

खोमचेवालों के इर्द-गिर्द भीड़ छँटने लगी। लोग अपने-अपने डिब्बों में लौटने लगे। तभी सहसा एक ओर से मुझे वह बाबू आता दिखाई दिया। उसका चेहरा अभी भी बहुत पीला था और माथे पर बालों की लट झूल रही थी। नजदीक पहुँचा, तो मैंने देखा, उसने अपने दाएँ हाथ में लोहे की एक छड़ उठा रखी थी। जाने वह उसे कहाँ मिल गई थी! डिब्बे में घुसते समय उसने छड़ को अपनी पीठ के पीछे कर लिया और मेरे साथ वाली सीट पर बैठने से पहले उसने हौले से छड़ को सीट के नीचे सरका दिया। सीट पर बैठते ही उसकी आँखें पठान को देख पाने के लिए ऊपर को उठीं। पर डिब्बे में पठानों को न पा कर वह हड़बड़ा कर चारों ओर देखने लगा।

'निकल गए हरामी, मादर... सब-के-सब निकल गए!' फिर वह सिटपिटा कर उठ खड़ा हुआ चिल्ला कर बोला - 'तुमने उन्हें जाने क्यों दिया? तुम सब नामर्द हो, बुजदिल!'

पर गाड़ी में भीड़ बहुत थी। बहुत-से नए मुसाफिर आ गए थे। किसी ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।

गाड़ी सरकने लगी तो वह फिर मेरी वाली सीट पर आ बैठा, पर वह बड़ा उत्तेजित था और बराबर बड़बड़ाए जा रहा था।

धीरे-धीरे हिचकोले खाती गाड़ी आगे बढ़ने लगी। डिब्बे में पुराने मुसाफिरों ने भरपेट पूरियाँ खा ली थीं और पानी पी लिया था और गाड़ी उस इलाके में आगे बढ़ने लगी थी, जहाँ उनके जान-माल को खतरा नहीं था।

नए मुसाफिर बतिया रहे थे। धीरे-धीरे गाड़ी फिर समतल गति से चलने लगी थी। कुछ ही देर बाद लोग ऊँघने भी लगे थे। मगर बाबू अभी भी फटी-फटी आँखों से सामने की ओर देखे जा रहा था। बार-बार मुझसे पूछता कि पठान डिब्बे में से निकल कर किस ओर को गए हैं। उसके सिर पर जुनून सवार था।

गाड़ी के हिचकोलों में मैं खुद ऊँघने लगा था। डिब्बे में लेट पाने के लिए जगह नहीं थी। बैठे-बैठे ही नींद में मेरा सिर कभी एक ओर को लुढ़क जाता, कभी दूसरी ओर को। किसी-किसी वक्त झटके से मेरी नींद टूटती, और मुझे सामने की सीट पर अस्त-व्यस्त से पड़े सरदार जी के खर्राटे सुनाई देते। अमृतसर पहुँचने के बाद सरदार जी फिर से सामनेवाली सीट पर टाँगे पसार कर लेट गए थे। डिब्बे में तरह-तरह की आड़ी-तिरछी मुद्राओं में मुसाफिर पड़े थे। उनकी बीभत्स मुद्राओं को देख कर लगता, डिब्बा लाशों से भरा है। पास बैठे बाबू पर नजर पड़ती तो कभी तो वह खिड़की के बाहर मुँह किए देख रहा होता, कभी दीवार से पीठ लगाए तन कर बैठा नजर आता।

किसी-किसी वक्त गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती तो पहियों की गड़गड़ाहट बंद होने पर निस्तब्धता-सी छा जाती। तभी लगता, जैसे प्लेटफार्म पर कुछ गिरा है, या जैसे कोई मुसाफिर गाड़ी में से उतरा है और मैं झटके से उठ कर बैठ जाता।

इसी तरह जब एक बार मेरी नींद टूटी तो गाड़ी की रफ्तार धीमी पड़ गई थी, और डिब्बे में अँधेरा था। मैंने उसी तरह अधलेटे खिड़की में से बाहर देखा। दूर, पीछे की ओर किसी स्टेशन के सिगनल के लाल कुमकुमे चमक रहे थे। स्पष्टत: गाड़ी कोई स्टेशन लाँघ कर आई थी। पर अभी तक उसने रफ्तार नहीं पकड़ी थी।

डिब्बे के बाहर मुझे धीमे-से अस्फुट स्वर सुनाई दिए। दूर ही एक धूमिल-सा काला पुंज नजर आया। नींद की खुमारी में मेरी आँखें कुछ देर तक उस पर लगी रहीं, फिर मैंने उसे समझ पाने का विचार छोड़ दिया। डिब्बे के अंदर अँधेरा था, बत्तियाँ बुझी हुई थीं, लेकिन बाहर लगता था, पौ फटने वाली है।

मेरी पीठ-पीछे, डिब्बे के बाहर किसी चीज को खरोंचने की-सी आवाज आई। मैंने दरवाजे की ओर घूम कर देखा। डिब्बे का दरवाजा बंद था। मुझे फिर से दरवाजा खरोंचने की आवाज सुनाई दी। फिर, मैंने साफ-साफ सुना, लाठी से कोई डिब्बे का दरवाजा पटपटा रहा था। मैंने झाँक कर खिड़की के बाहर देखा। सचमुच एक आदमी डिब्बे की दो सीढ़ियाँ चढ़ आया था। उसके कंधे पर एक गठरी झूल रही थी, और हाथ में लाठी थी और उसने बदरंग-से कपड़े पहन रखे थे और उसके दाढ़ी भी थी। फिर मेरी नजर बाहर नीचे की ओर आ गई। गाड़ी के साथ-साथ एक औरत भागती चली आ रही थी, नंगे पाँव, और उसने दो गठरियाँ उठा रखी थीं। बोझ के कारण उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। डिब्बे के पायदान पर खड़ा आदमी बार-बार उसकी ओर मुड़ कर देख रहा था और हाँफता हुआ कहे जा रहा था - 'आ जा, आ जा, तू भी चढ़ आ, आ जा!'

दरवाजे पर फिर से लाठी पटपटाने की आवाज आई - 'खोलो जी दरवाजा, खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो।'

वह आदमी हाँफ रहा था - 'खुदा के लिए दरवाजा खोलो। मेरे साथ में औरतजात है। गाड़ी निकल जाएगी...'

सहसा मैंने देखा, बाबू हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ और दरवाजे के पास जा कर दरवाजे में लगी खिड़की में से मुँह बाहर निकाल कर बोला - 'कौन है? इधर जगह नहीं है।'

बाहर खड़ा आदमी फिर गिड़गिड़ाने लगा - 'खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो। गाड़ी निकल जाएगी...'

और वह आदमी खिड़की में से अपना हाथ अंदर डाल कर दरवाजा खोल पाने के लिए सिटकनी टटोलने लगा।

'नहीं है जगह, बोल दिया, उतर जाओ गाड़ी पर से।' बाबू चिल्लाया और उसी क्षण लपक कर दरवाजा खोल दिया।

'या अल्लाह! उस आदमी के अस्फुट-से शब्द सुनाई दिए। दरवाजा खुलने पर जैसे उसने इत्मीनान की साँस ली हो।'

और उसी वक्त मैंने बाबू के हाथ में छड़ चमकते देखा। एक ही भरपूर वार बाबू ने उस मुसाफिर के सिर पर किया था। मैं देखते ही डर गया और मेरी टाँगें लरज गईं। मुझे लगा, जैसे छड़ के वार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ। उसके दोनों हाथ अभी भी जोर से डंडहरे को पकड़े हुए थे। कंधे पर से लटकती गठरी खिसट कर उसकी कोहनी पर आ गई थी।

तभी सहसा उसके चेहरे पर लहू की दो-तीन धारें एक साथ फूट पड़ीं। मुझे उसके खुले होंठ और चमकते दाँत नजर
वह दो-एक बार 'या अल्लाह!' बुदबुदाया, फिर उसके पैर लड़खड़ा गए। उसकी आँखों ने बाबू की ओर देखा, अधमुँदी-सी आँखें, जो धीर-धीरे सिकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की कोशिश कर रही हों कि वह कौन है और उससे किस अदावत का बदला ले रहा है। इस बीच अँधेरा कुछ और छन गया था। उसके होंठ फिर से फड़फड़ाए और उनमें सफेद दाँत फिर से झलक उठे। मुझे लगा, जैसे वह मुस्कराया है, पर वास्तव में केवल क्षय के ही कारण होंठों में बल पड़ने लगे थे।

नीचे पटरी के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी। उसे अभी भी मालूम नहीं हो पाया था कि क्या हुआ है। वह अभी भी शायद यह समझ रही थी कि गठरी के कारण उसका पति गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं पा रहा है, कि उसका पैर जम नहीं पा रहा है। वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी दो गठरियों के बावजूद अपने पति के पैर पकड़-पकड़ कर सीढ़ी पर टिकाने की कोशिश कर रही थी।

तभी सहसा डंडहरे से उस आदमी के दोनों हाथ छूट गए और वह कटे पेड़ की भाँति नीचे जा गिरा। और उसके गिरते ही औरत ने भागना बंद कर दिया, मानो दोनों का सफर एक साथ ही खत्म हो गया हो।

बाबू अभी भी मेरे निकट, डिब्बे के खुले दरवाजे में बुत-का-बुत बना खड़ा था, लोहे की छड़ अभी भी उसके हाथ में थी। मुझे लगा, जैसे वह छड़ को फेंक देना चाहता है लेकिन उसे फेंक नहीं पा रहा, उसका हाथ जैसे उठ नहीं रहा था। मेरी साँस अभी भी फूली हुई थी और डिब्बे के अँधियारे कोने में मैं खिड़की के साथ सट कर बैठा उसकी ओर देखे जा रहा था।

फिर वह आदमी खड़े-खड़े हिला। किसी अज्ञात प्रेरणावश वह एक कदम आगे बढ़ आया और दरवाजे में से बाहर पीछे की ओर देखने लगा। गाड़ी आगे निकलती जा रही थी। दूर, पटरी के किनारे अँधियारा पुंज-सा नजर आ रहा था।

बाबू का शरीर हरकत में आया। एक झटके में उसने छड़ को डिब्बे के बाहर फेंक दिया। फिर घूम कर डिब्बे के अंदर दाएँ-बाएँ देखने लगा। सभी मुसाफिर सोए पड़े थे। मेरी ओर उसकी नजर नहीं उठी।

थोड़ी देर तक वह खड़ा डोलता रहा, फिर उसने घूम कर दरवाजा बंद कर दिया। उसने ध्यान से अपने कपड़ों की ओर देखा, अपने दोनों हाथों की ओर देखा, फिर एक-एक करके अपने दोनों हाथों को नाक के पास ले जा कर उन्हें सूँघा, मानो जानना चाहता हो कि उसके हाथों से खून की बू तो नहीं आ रही है। फिर वह दबे पाँव चलता हुआ आया और मेरी बगलवाली सीट पर बैठ गया।

धीरे-धीरे झुटपुटा छँटने लगा, दिन खुलने लगा। साफ-सुथरी-सी रोशनी चारों ओर फैलने लगी। किसी ने जंजीर खींच कर गाड़ी को खड़ा नहीं किया था, छड़ खा कर गिरी उसकी देह मीलों पीछे छूट चुकी थी। सामने गेहूँ के खेतों में फिर से हल्की-हल्की लहरियाँ उठने लगी थीं।

सरदार जी बदन खुजलाते उठ बैठे। मेरी बगल में बैठा बाबू दोनों हाथ सिर के पीछे रखे सामने की ओर देखे जा रहा था। रात-भर में उसके चेहरे पर दाढ़ी के छोटे-छोटे बाल उग आए थे। अपने सामने बैठा देख कर सरदार उसके साथ बतियाने लगा - 'बड़े जीवट वाले हो बाबू, दुबले-पतले हो, पर बड़े गुर्दे वाले हो। बड़ी हिम्मत दिखाई है। तुमसे डर कर ही वे पठान डिब्बे में से निकल गए। यहाँ बने रहते तो एक-न-एक की खोपड़ी तुम जरूर दुरुस्त कर देते...' और सरदार जी हँसने लगे।

बाबू जवाब में मुसकराया - एक वीभत्स-सी मुस्कान, और देर तक सरदार जी के चेहरे की ओर देखता रहा।

Monday 30 July 2018

जिहाद : प्रेमचंद


                      कहानी - " जिहाद "

                              

                     




बहुत पुरानी बात है। हिंदुओं का एक काफ़िला अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्रांत में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जंग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हर एक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला जान था, खून का बदला खून; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान; मगर उस भीषण रक्तपात में भी हिंदू परिवार शांति से जीवन व्यतीत करते थे। पर एक महीने से देश की हालत बदल गयी है। एक मुल्ला ने न जाने कहाँ से आ कर अनपढ़ धर्मशून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिंचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरज कर कहता है-खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफिष्र के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशनी कर देने का सवाब सारी उम्र के रोजे, नमाज और जकात से कहीं ज्यादा है। जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएँ लेंगी और फरिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा। और सारी जनता यह आवाज सुन कर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। उसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिंदुओं पर जो सदियों से शांति के साथ रहते थे, हमले होने लगे हैं। कहीं उनके मंदिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं। कहीं उन्हें जबरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिंदू संख्या में कम हैं, असंगठित हैं; बिखरे हुए हैं, इस नयी परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पाँव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़ कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ इस आँधी के शांत हो जाने का अवसर देख रहे हैं। यह काफिष्ला भी उन्हीं भागनेवालों में था। दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अंत को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुआँ नजर आया। वहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जिहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। दो युवकों ने बंदूक भर कर कंधे पर रखीं और चारों तरफ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछा कर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियाँ बालकों को गोद से उतार कर माथे का पसीना पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगीं। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिंता और भय से त्रास्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे जोर से न रोते थे।
दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला रूपवान है। उसकी आँखों से अभिमान की रेखाएँ-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हकीकत नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गत पर आकाश के देवता जयघोष कर रहे हैं। दूसरा कद का दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भाँति रो-रो कर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है; इसका ख़ज़ाँचन्द।
धर्मदास ने बंदूक को जमीन पर टिका कर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा-तुमने अपने लिए क्या सोचा? कोई लाख-सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी ?
ख़ज़ाँचंद ने उदासीन भाव से उत्तर दिया-लाख-सवा लाख की तो नहीं, हाँ, पचास-साठ हजार तो नकद ही थे।
‘तो अब क्या करोगे ?’
‘जो कुछ सिर पर आयेगा, झेलूँगा ! रावलपिंडी में दो-चार सम्बन्धी हैं, शायद कुछ मदद करें। तुमने क्या सोचा है ?’
‘मुझे क्या गम ! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहाँ इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।’
‘आज और कुशल से बीत जाये तो फिर कोई भय नहीं।’
‘मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दरजन भी आ जायँ तो भून कर रख दूँ।’
इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा-डोर लिये निकली और सामने कुएँ की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर, अरुणिमा मूर्तिमान हो गयी थी।
दोनों युवक उसकी ओर बढ़े लेकिन ख़ज़ाँचंद तो दो-चार कदम चल कर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा-डोर ले लिया और ख़ज़ाँचंद की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएँ की ओर चला। ख़ज़ाँचंद ने फिर बंदूक सँभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेशमात्र भी संदेह न था कि श्यामा का प्रेमपात्रा धर्मदास है। ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूपवैभव के आगे तुच्छ थी। परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से भी श्यामा कई बार ख़ज़ाँचंद को हताश कर चुकी थी; पर वह अभागा निराश हो कर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था। तीनों एक ही बस्ती के रहनेवाले थे। श्यामा के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। उसकी बुआ ने उसका पालन-पोषण किया था। अब भी वह बुआ ही के साथ रहती थी। उसकी अभिलाषा थी कि ख़ज़ाँचंद उसका दामाद हो, श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अंतिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाये; लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी। उसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है, वही उसका एकमात्र अवलम्ब है। ख़ज़ाँचंद ही वृद्धा का मुनीम, खजांची, कारिंदा सब कुछ था और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे जीवन में नहीं मिल सकती। उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटा कर फकीर हो जाता।
2
धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिये। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पाँच आदमी हैं। उनकी बंदूक की नलियाँ धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें लेकिन कंधे पर बंदूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ सकता था। फासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फिसल जायँ। इधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुँचे और तुरंत उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ी देख कर उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूट कर गिर पड़ी। पाँचों उसी के गाँव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा-उड़ा दो सिर मरदूद का। दग़ाबाज़ काफिष्र।
दूसरा-नहीं नहीं, ठहरो, अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दग़ा की क्या सजा दी जाय ? हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फैसला करने के लिए दिया था। मगर तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ; लेकिन हम तुम्हें फिर मौका देते हैं। यह आखिरी मौका है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न कबूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।
धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा-जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे ...
पहले सवार ने आवेश में आकर कहा-मजहब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं।
तीसरा-कुफ्र है ! कुफ्र है !
पहला- उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआँ इस पार।
दूसरा-ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहाँ हैं धर्मदास ?
धर्मदास-सब मेरे साथ ही हैं।
दूसरा-कलामे शरीफ़ की कसम; अगर तुम सब खुदा और उनके रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज निगाहों से देख भी न सकेगा।
धर्मदास-आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौका न देंगे।
इस पर चारों सवार चिल्ला उठे-नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है।
इतना कहते ही पहले सवार ने बंदूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला-बस बोलो, क्या मंजूर है ?
धर्मदास सिर से पैर तक काँप कर बोला-अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूँ तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ न दी जायेगी ?
दूसरा-हाँ, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे।
पहला-हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो। क्या चाहते हो ? हाँ या नहीं ?
धर्मदास ने जहर का घूँट पी कर कहा-मैं खुदा पर ईमान लाता हूँ।
पाँचों ने एक स्वर से कहा-अलहमद व लिल्लाह ! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।
3
श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें पानी लाने भेजा ? अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा, तो मैं प्यासों मर जाती, पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर ख़ज़ाँचंद भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देख कर कहा- अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती।
ख़ज़ाँचंद-बंदूक भी हाथ से छूट पड़ी है।
श्यामा-न जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे गजब ! दुष्ट ने उनकी ओर बंदूक तानी है !
ख़ज़ाँ.-जरा और समीप आ जायँ, तो मैं बंदूक चलाऊँ। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है।
श्यामा-अरे ! देखो, वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है ?
ख़ज़ाँ.-कुछ समझ में नहीं आता।
श्यामा-कहीं इसने कलमा तो नहीं पढ़ लिया ?
ख़ज़ाँ.-नहीं, ऐसा क्या होगा, धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।
श्यामा-मैं समझ गयी। ठीक यही बात है। बंदूक चलाओ।
ख़ज़ाँ.-धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय।
श्यामा-कोई हर्ज नहीं। मैं चाहती हूँ, पहला निशाना धर्मदास ही पर पड़े। कायर ! निर्लज्ज ! प्राणों के लिए धर्म त्याग किया। ऐसी बेहयाई की जिंदगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो। क्या तुम्हारे भी हाथ-पाँव फूल गये। लाओ, बंदूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूँगी।
ख़ज़ाँ.-मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास ...
श्यामा-तुम्हें कभी विश्वास न आयेगा। लाओ, बंदूक मुझे दो। खडे़ क्या ताकते हो ? क्या जब वे सिर पर आ जायँगे, तब बंदूक चलाओ? क्या तुम्हें भी यह मंजूर है कि मुसलमान हो कर जान बचाओ ? अच्छी बात है, जाओ। श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है; मगर उसे अब मुँह न दिखाना।
ख़ज़ाँचंद ने बंदूक चलायी। एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई निकल गयी। जिहादियों ने ‘अल्लाहो अकबर !’ की हाँक लगायी। दूसरी गोली चली और घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जिहादियों ने फिर ‘अल्लाहो अकबर !’ की सदा लगायी और आगे बढ़े। तीसरी गोली आयी। एक पठान लोट गया; पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान ख़ज़ाँचंद के सिर पर पहुँच गये और बंदूक उसके हाथ से छीन ली।
एक सवार ने ख़ज़ाँचंद की ओर बंदूक तान कर कहा-उड़ा दूँ सिर मरदूद का, इससे खून का बदला लेना है।
दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था, कहा-नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। ख़ज़ाँचंद, तुम्हारे ऊपर दगा, खून और कुफ्र, ये तीन इल्ज़ाम हैं, और तुम्हें कत्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौका और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफारा (प्रायश्चित्त) नहीं है। यह हमारा आखिरी फैसला है। बोलो, क्या मंजूर है ?
चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल लीं, और उन्हें ख़ज़ाँचंद के सिर पर तान दिया मानो ‘नहीं’ का शब्द मुँह से निकलते ही चारों तलवारें उसकी गर्दन पर चल जायँगी !
ख़ज़ाँचंद का मुखमंडल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगीं। दृढ़ता से बोला-तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो ? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ से वह अपना ईमान बेच डालेगा ? हिंदू को अपने ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी नबी, वली या पैगम्बर की जरूरत नहीं ! चारों पठानों ने कहा-काफिर ! काफिर !
ख़ज़ाँ.-अगर तुम मुझे काफिर समझते हो तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज्यादा खुदापरस्त समझता हूँ। मैं उस धर्म को मानता हूँ, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल ...
चारों पठानों के मुँह से निकला ‘काफिर ! काफिर !’ और चारों तलवारें एक साथ ख़ज़ाँचंद की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश जमीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब ख़ज़ाँचंद की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा; पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहत-सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही ख़ज़ाँचंद की लाश जमीन पर गिरी, वह झपट कर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आँचल से रक्त-प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये। उसने बड़ी सुंदर बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ पहनी होंगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।
ऐसा जान पड़ा मानो ख़ज़ाँचंद की बुझती आँखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान हो गयी हैं। उन नेत्रों में कितना संतोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कंठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पायी, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।
4
धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़ कर कहा-श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गये हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा ? ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे ?
श्यामा ने तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देख कर कहा-तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ। मेरी चिंता मत करो, मैं अब न जाऊँगी। हाँ, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अंत करा दो।
धर्मदास करुणा-कातर स्वर से बोला-श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गयीं कि हमसे-तुमसे क्या बातें हुई थीं ? मुझे खुद ख़ज़ाँचंद के मारे जाने का शोक है; पर भावी को कौन टाल सकता है ?
श्यामा-अगर यह भावी थी, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूँ, जिसका मैंने सदैव निरादर किया। यह कहते-कहते श्यामा का शोकोद्गार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था, उबल पड़ा और वह ख़ज़ाँचंद के निस्पंद हाथों को अपने गले में डाल कर रोने लगी।
चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देख कर करुणार्द्र हो गये। सरदार ने धर्मदास से कहा-तुम इस पाकीजा खातून से कहो, हमारे साथ चले। हमारी जाति से इसे कोई तकलीफ न होगी। हम इसकी दिल से इज्जत करेंगे।
धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी। वह रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुँह भी नहीं देखना चाहती थी। बोला-श्यामा, तुम चाहो इस लाश पर आँसुओं की नदी बहा दो, पर यह जिंदा न होगी। यहाँ से चलने की तैयारी करो। मैं साथ के और लोगों को भी जा कर समझाता हूँ। खान लोेग हमारी रक्षा करने का जिम्मा ले रहे हैं। हमारी जायदाद, जमीन, दौलत सब हमको मिल जायगी। ख़ज़ाँचंद की दोैलत के भी हमीं मालिक होंगे। अब देर न करो। रोने-धोने से अब कुछ हासिल नहीं।
श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देख कर कहा-और इस वापसी की कीमत क्या देनी होगी ? वही जो तुमने दी है ?
धर्मदास यह व्यंग्य न समझ सका। बोला-मैंने तो कोई कीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या ?
श्यामा-ऐसा न कहो। तुम्हारे पास वह खजाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था। जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शंकर, शिवाजी और गोविंदसिंह ने की थी। उस अमूल्य भंडार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पाँवों पर लोटना तुम्हें मुबारक हो! तुम शौक से जाओ। जिन तलवारों ने वीर ख़ज़ाँचंद के जीवन का अंत किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फैसला कर दिया। जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया, इसके साथ जो उदासीनता दिखायी उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित्त करूँगी। यह धर्म पर मरने वाला वीर था, धर्म को बेचनेवाला कायर नहीं ! अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है, तो इसका क्रिया-कर्म करने में मेरी मदद करो और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसंद न हो, तो रहने दो, मैं सब कुछ कर लूँगी।
पठानों के हृदय दर्द से तड़प उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शांत हो गया। देखते-देखते वहाँ लकड़ियों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियाँ काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने ख़ज़ाँचंद की जान ली थी उन्हीं ने उसके शव को चिता पर रखा। ज्वाला प्रचंड हुई। अग्निदेव अपने अग्निमुख से उस धर्मवीर का यश गा रहे थे।
पठानों ने ख़ज़ाँचंद की सारी जंगम सम्पत्ति ला कर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं पर एक छोटा-सा मकान बनवाया और वीर ख़ज़ाँचंद की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गयी, और सब लोग पठानों के साथ लौट गये, क्योंकि अब मुसलमान होने की शर्त न थी। ख़ज़ाँचंद के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मसजिद में मुल्लाओं का मेला लगा और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये; पर उसका वहाँ पता न था। चारों तरफ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला।
साल-भर गुजर गया। संध्या का समय था। श्यामा अपने झोंपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दुःख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएँ भविष्य पर अवलम्बित थीं। और भविष्य भी वह, जिसका इस जीवन से कोई सम्बन्ध न था ! आकाश पर लालिमा छायी हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शांति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की काँपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियाँ भर रही हो।
उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोंपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता जोर से भूँक उठा। श्यामा ने चौंक कर देखा और चिल्ला उठी-धर्मदास !
धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा-हाँ श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूँ। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूँ। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रांत मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूँ; पर मौत भी नहीं आती।
धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला-क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से साफ नहीं हुआ ! तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया !
श्यामा ने उदासीन भाव से कहा-मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।
‘मैं अब भी हिंदू हूँ। मैंने इस्लाम नहीं कबूल किया है।’
‘जानती हूँ !’
‘यह जान कर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती !’
श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली-तुम्हें अपने मुँह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती ! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूँ, जिसने हिंदू-जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया ! यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूँ। तुमने हिंदू-जाति को कलंकित किया है। मेरे सामने से दूर हो जाओ।
धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया ! चुपके से उठा, एक लम्बी साँस ली और एक तरफ चल दिया।

प्रातःकाल श्यामा पानी भरने जा रही थी, तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी। दो-चार गिद्ध उस पर मँडरा रहे थे। उसका हृदय धड़कने लगा। समीप जा कर देखा और पहचान गयी। यह धर्मदास की लाश थी।

Wednesday 25 July 2018

बीसवीं सदी के डूबते कथाकारों की श्रंखला-1 में - तमाशे में डूबा हुआ देश : असगर वजाहत

     

    बीसवीं सदी के डूबते कथाकारों की श्रंखला-1

       तो आइये अब बीसवीं सदी के डूबते कथाकारों की श्रंखला-1 में पढ़ते हैं हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ " श्री असगर वजाहत " की कहानी --
' तमाशे में डूबा हुआ देश '
लेकिन-किन्तु-परन्तु उससे पहले कहानी के लिए मेरी ओर से दो पंक्ति -
" हर क्षण पिला हुआ है जो देश ' सफेद ' होने में

  एक आह बता रही है देश का चरित्र लालम-लाल है "

       और वर्तमान कहानी-लेखन पर छोटी सिरफिरी।

          नाटकीयता, कहानियों में नमक की तरह होनी चाहिए ।  बे-नमक कहानियां सपाट सड़क हो जाती है। पढ़ो और मौक्ष पा लो। पढ़ो और गंतव्य तक यूँही पँहुच जाओ । यूँही पँहुचना कहानी का सौन्दर्य नहीं होता है। कहानी जबतक आपके मन-मस्तिष्क के साथ उठा-पटक नहीं करे या आपके कैनवस पर रंग न छिड़के तबतक कोई रास नहीं। इसलिए कहानियों में चीनी, मिसरी, शहद आदि-आदि चाहे जितना हो, फर्क नहीं पढ़ता। मगर कहानियों में नमक का न होना। उन्हें बे-स्वादी का पजामा पहना देता है और नमक जिसे मैनें नाटकीयता कहा है, उन्हें उष्मा देता है।
      वर्तमान दौर की कहानियां इसी अभाव से पीड़ित है। कथाकारों ने इसी तत्व को छोड़कर शेष सब सोख लिया है। शायद इसीलिए पिछले ही वर्ष उदय प्रकाश ने कैफी हाशमी की कहानी ' टमाटर होता है फल ' पढ़ने के बाद अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा था " मैंने आज कैफी हाशमी की कहानी - टमाटर होता है फल - पढ़ी। बहुत अरसे बाद कहानी से हिंदी में ऐसी मुलाक़ात हुई । अब हिन्दी पढ़ता रहूँगा। " इस वाक्य से वर्तमान दौर की कहानियों की श्रम-साध्यता खुल जाती है कि भीड़ की तरह जमा होती अधिकतर रचनाओं  का किस्सागोई के यर्थाथ और नाटकीयता से कोई वास्ता नहीं रहा।  रचनाओ में किस्से खूब होने लगे है। किस्सागोई की " गोई " हज़म कर बैठे कथाकार गोष्ठियों में चाव से कहानियों को दूहते है और निकले दूध की मिठाईयां खिला-खिलाकर पुरस्कारों की सूची में बाप-दादा हो जाते हैं।
      संज्ञाओ वाले इस दौर में कहानी को संज्ञा बनाते कथाकारों से विनती है कि दिल-फेक प्रेमी की तरह ना लिखे जो हर क्षण प्रेमिकाओ की दुनिया में प्रेम-चालीसा भले ही फांकता रहता हो किन्तु ऐसी दुनिया में उसे प्रेम का कलेवा नहीं मिलता है। प्रेम-पीड़ा का नमकीनी यर्थाथ जिह्वा पर रमता नहीं। वे आभासी छाया मात्र बनकर रह जाती रह जाती पीड़ा का रस छानते रहता है। आज का कथाकार भी कहानी-प्रेम का आभासी रस छान रहे है। कथाकार की आभासी छाया कहानी पर मंडराती रहती है। कथाकार ही तय कर देते है कि कहानी यही होनी चाहिए। इसलिए कथाकार को चाहिए कि वे मंडरा रहे आभासी छाया को पहचाने और लिखे वही जो प्रासंगिक हो अमुक के लिए । सम्मुख हेतू लिखना इस दौर का मुहावरा नहीं हो सकता हैं।
                                               - अहमद फहीम



                             तमाशे में डूबा हुआ देश 


                     

          
     

                                       असगर वजाहत 


           मैं पहले कहानियाँ लिखा करता था। अब मैंने कहानियाँ लिखना छोड़ दिया है क्योंकि कहानी लिखने से कोई बात नहीं बनती। झूठे सच्चे पात्र गढ़ना, इधर उधर की घटनाओं को समेटना, चटपटे संवाद लिखना, अपनी पढ़ी हुई किताबों की जानकारियों और अपने ज्ञान को कहानी में उलट देने से क्या होता है? मैं अपने दूसरे कहानीकार मित्रों को सलाह देता हूँ कि वे कहानी वहानी लिखने का काम छोड़ दें। हमारे इस देश में जहाँ रोज, हर पल, हर जगह कहानी से ज्यादा निर्मम घट रहा हो वहाँ कहानी लिखना बेकार की बात है। अपने चारों तरफ निगाह उठा कर देखिए, आपको बिखरी पड़ी कहानियाँ देख कर अपने कहानीकार होने पर शर्म आएगी जो मुझे आ चुकी है और मैंने कहानियाँ लिखना बंद कर दिया है। लेकिन चूँकि लिखने की आदत पड़ चुकी है और लिखे बिना चैन भी नहीं आता इसलिए सोचा है मैं कहानियाँ न लिख कर 'वाक्या' लिखा करूँगा। 'वाक्या' उर्दू का शब्द है जिसका मतलब 'घटना' निकाला जा सकता है लेकिन शायद बात पूरी बनेगी नहीं। 'वाक्या' किसी ऐसी सच्ची घटना का विवरण कहा जा सकता है जो रोचक, नाटकीय और मनोरंजक हो। केवल घटना मात्र न हो। अगर मैं आपको सिर्फ घटनाएँ सुनाने लगूँगा तो उसमें कुछ मजा न आएगा और आप मुझे बेवकूफ और मूर्ख समझ कर पढ़ना बंद कर देंगे। हो सकता है यह काम आप 'वाक्या' सुनने के बाद भी करें लेकिन मुझे अब भी उम्मीद है कि और कुछ करें या न करें 'वाक्ये' को सुन लेंगे। यह सच्चा वाक्या है। बहरहाल सच्चाई तो वैसे भी सामने आ जाएगी। मेरे कहने से न सच झूठ हो सकता है और न झूठ सच हो जाएगा।
हमारे ही देश के एक शहर में एक आदमी गायब हो गया और दो कुत्ते के पिल्ले गायब हो गए। मैं शहर का नाम नहीं बताऊँगा क्योंकि वाक्यानिगार होने का यह मतलब नहीं है कि मैं लोगों का दिल दुखाऊँ और अपना जीना हराम कर लूँ। आप जानते ही हैं कि आज हमारे अहिंसक देश में हर तरह की हिंसा तरक्की पर है। पहले जो बात तू तू मैं मैं पर खत्म हो जाती वह अब हत्या का कारण बन जाती है। अब तो हत्यारों का सम्मान होता है। मैं जिस इलाके का रहनेवाला हूँ वहाँ जिसने जितनी हत्याएँ की होती हैं उसका उतना सम्मान होता है। यही कारण है कि आज तक मेरे इलाके में मेरा सम्मान नहीं हो सका है क्योंकि मैं मक्खी मारने लायक भी नहीं हूँ। सम्मान के मानदंड बदल गए हैं। इसे साबित करने के लिए मिसाल के लिए एक और वाक्या भी है। विधान सभा के चुनाव हो जाने के बाद कुछ नेतागण विधायक कैंटीन में बैठे बातचीत कर रहे थे और सब एक दूसरे से पूछ रहे थे कि आपने कहाँ से 'कंटेस्ट' किया था। ध्यान दें कि उनमें लोकतंत्र की भावना कितनी प्रबल थी। वे हारने या जीतने की बात नहीं कर रहे थे, केवल 'कंटेस्ट' करने की बात कर रहे थे। सबने बताया कि उन्होंने कहाँ कहाँ से 'कंटेस्ट' किया है। एक आदमी से पूछा गया तो उसने कहा कि मैंने कहीं से 'कंटेस्ट' नहीं किया है। सब उसे देख कर हैरत में पड़ गए और कहा, जाइए जा कर काउंटर से छह चाय ले आइए।
अब बात लोकतंत्र की शुरू हो गई है तो एक वाक्या और सुनते चलिए। विधान सभा के सामने किसी मुद्दे पर अनिश्चितकालीन अनशन जारी था। किसी सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर किसी संस्था की ओर से प्रतिदिन एक आदमी अनशन पर बैठता था। मैं उधर से गुजर रहा था। मैंने देखा कि अनशन पर बैठा आदमी तो पम्मी शर्मा है। मैं उसे जानता हूँ। वह उभरता हुआ नेता है और उसने अपने लिए सभी पार्टियों के दरवाजे खुले रखे हैं। मैंने सोचा क्यों न पम्मी शर्मा से मिल लूँ, ऐसी कठिन घड़ी में मेरे दो शब्द उसे ताकत देंगे और फिर पम्मी से कोई काम पड़ा तो उसे याद रहेगा कि मैंने कठिन क्षणों में उससे कुछ अच्छे शब्द कहे थे। गरज यह कि मैं उसके पास गया। वह मुझे देख कर इतना खुश हो गया जितना पहले न होता था। उसने बताया कि अनशन चालीस दिन से चल रहा है, मुझे अपने देश के विकसित लोकतंत्र पर गर्व हुआ। मैंने उसकी तारीफ की। उसने कहा - 'यार, एक दिन के लिए तुम भी अनशन पर बैठ जाओ।'
मैं पहले तो चौंका, कुछ घबराया पर उसने कहा - 'यार एक दिन की तो बात है, सुबह बैठोगे... शाम को खत्म हो जाएगा।'
मैं तैयार हो गया। सोचा ठीक है यार देश की लोकतंत्रिक ताकतों को मजबूत करने के लिए इतना तो करना चाहिए।
मैं अगले दिन सुबह ही सुबह वहाँ पहुँच गया। वहाँ सात आठ लोग चाय पी रहे थे। पम्मी शर्मा भी था। उसने मुझे गद्दी पर बैठाया। गले में गेंदे के फूलों की माला डाली। तिलक लगाया। मेरा अनशन जारी हो गया। मैं अपनी आत्मा को उत्फुल्ल महसूस करने लगा। थोड़ी देर में पम्मी मेरे पास आया और बोला - 'किसी आदमी का इंतिजाम कर लेना।'
मैं हैरत से उसकी तरफ देखने लगा। वह समझ गया था कि मैं अभी तक नहीं समझ पाया हूँ।
वह बोला - 'जो अनशन से हटेगा... उसे टेंटवाले का, चायवाले का, जूसवाले का, माली का 'पेमेंट' करना होगा।'
मेरे तो पैरों तले से जमीन निकल गई। मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा - 'यार, उस संगठन के लोग कहाँ हैं जिन्होंने अनशन कराया है?' उसने कहा - 'वे तो सब अपने अपने घर चले गए हैं... तुम्हें कुछ नहीं करना बस एक आदमी का इंतिजाम कर लो... और सुनो...' वह जाने से पहले बोला - 'शाम को जूसवाले से जूस मँगा लेना, उसके यहाँ भी हिसाब चल रहा है।' पम्मी चला गया।
पम्मी ने अपनी टोपी मेरे सिर में फिट कर दी थी। मैं अब समझा कि यही है हमारा लोकतंत्र। अब मेरे साथ क्या हुआ यह मैं आपको नहीं बताऊँगा। बस यह समझ लीजिए कि अब मैं उस शहर नहीं जाता जहाँ अनशन पर बैठा था। क्योंकि टेंटवाला, चायवाला, जूसवाला, माली सब मुझे तलाश कर रहे हैं। पम्मी से मैंने जब यह बताया था कि यार टेंटवाला, चायवाला वगैरा मुझे खोज रहे हैं तो वह लापरवाही से बोला था - 'खोजने दो सालों को, इस देश में यही हो रहा है। किसी न किसी को कोई न कोई खोज रहा है और किसी को कोई नहीं मिलता। तुम आराम से अपने लिखने पढ़ने के काम में लग जाओ।'
मैं पम्मी की सलाह पर लिखने पढ़ने के काम में लग गया हूँ तब ही यह वाक्या लिख रहा हूँ।
माफ कीजिएगा मैंने बात शुरू की थी, एक शहर में एक आदमी और कुत्ते के पिल्लों के गायब होने से लेकिन होते हुआते मैं देश के लोकतंत्र पर आ गया। दरअसल वाक्यानिगारों की यही कमी होती है, वो बात शुरू तो कर देते हैं पर जानते नहीं कि बात कहाँ पहुँचेगी।
तो जनाब एक शहर में एक आदमी गायब हो गया। उसकी पत्नी पता चलाने पुलिस के पास गई तो पुलिस ने कहा कि अभी तक कोई सिरकटी लाश नहीं मिली है, जैसे ही मिलेगी उसे बता दिया जाएगा। आदमी की पत्नी यह सुन कर डर गई। पुलिस ने कहा - 'इस देश में मौत से डरोगी तो रह ही नहीं सकती। हम लोग मौत से नहीं डरते। आत्मा पर हमारा विश्वास है। मौतें तो इस देश में ऐसे आती हैं जैसे दूसरे देशों में बहार आती है। देखो दस पाँच हजार औरतें तो जला दी जाती हैं, दस बीस हजार सड़कों पर कुचल कर मर जाते हैं, पता नहीं कितने दंगों में मार दिए जाते हैं, अकाल और बाढ़ की तो पूछो ही मत। नौकरी पाने के इच्छुक गोली खा कर मर जाते है। आतंकवादी हजारों को मार डालते हैं। तो देश क्या है बूचड़खाना है। अब काजल की कोठरी में रह कर काला होने से क्या डरना... शुक्र कर, तेरे आदमी की अभी लाश नहीं मिली है। हो सकता है अपहरण हो गया हो। फिरौती के लिए चिट्ठी या फोन आए।'
औरत बोली - 'दरोगा जी, हमारे पास क्या है जो कोई फिरौती के लिए अगवा करेगा! दो टाइम खाने को नहीं जुटता।'
'तब तो अपहरण की ट्रेनिंग लेनेवालों ने अभ्यास के तौर पर तेरे पति का अपहरण कर लिया होगा।'
'ये क्या होता है दरोगा जी।'
'देख, देश में बहुत से प्राइवेट स्कूल कालिज खुल गए हैं। अपहरण उद्योग के रिटायर्ड लोगों ने मिल कर 'अपहरण कालिज' खोल दिया है। अच्छी फीस लेते हैं... वे अपने छात्रों से कहते हैं कि नमूने के तौर पर किसी का अपहरण करके दिखाओ... वे लोग तेरे पति को छोड़ देंगे... बशर्ते कि ...' पुलिसवाला बोलते बोलते रुक गया।
'क्या बशर्ते कि दरोगा जी?' औरत ने पूछा।
'देख, यह भी हो सकता है कि अपहरण के प्रयोग के बाद उन्होंने तेरे पति को किसी दूसरे स्कूल में पहुँचा दिया हो।'
'क्या मतलब दरोगा जी?'
'देख हत्या करना, गोली मारना, गला काटना आदि आदि सिखाने के भी तो स्कूल खुले हैं न?'
औरत रोने लगी। पुलिस बोली - 'रो मत, हो सकता है मानव अंगों की तस्करी करनेवाले किसी गिरोह ने पकड़ लिया हो। तेरा पति आ तो जाएगा पर ये समझ ले एक गुर्दा न होगा, या एक आँख न होगी, या मान ले ...' औरत रोने लगी। पुलिस ने कहा अब यहाँ थाने में न रो। यहाँ औरतें रोती हैं तो लोग जाने क्या क्या समझते हैं। यहाँ से तो तुझे हँसते हुए जाना चाहिए।'
ये तो हुई आदमी के गुम हो जाने की बात। अब सुनें कुत्ते के पिल्लों की गुमशुदगी की दास्तान। दरअसल जो कुत्ते के पिल्ले खोए है उन्हें कुत्ते का पिल्ला कहने से भी डर रहा हूँ। उसकी वजह है। आपको मालूम ही है कि कुछ साल पहले अमेरिका के राष्ट्रपति जब अपने दल बल के साथ दिल्ली आए थे तो उनके साथ कुत्ते भी थे। उनके कुत्तों की प्रतिष्ठा, गरिमा, पद आदि के बारे में पता न होने के कारण एक भारतीय अधिकारी ने उन्हें कुत्ता कह दिया था। इसी बात पर उस अधिकारी के खिलाफ कुत्तों की मानहानि का दावा कर दिया गया था। अदालत में अमेरिकी सरकार के प्रतिनिधि ने कहा था, ये कुत्ते नहीं हैं - इनके नाम और पद हैं। एक का नाम जैक जॉनी है और वह मेजर के पद पर है। दूसरे का नाम स्टीव शॉ है जो कैप्टेन है। तीसरी कुतिया का नाम लिंडा जॉन्स है जिसने अभी अभी ज्वाइन किया है और वह सेकेंड लेफ्टीनेंट है। अदालत ने इन अधिकारियों की मानहानि करने के सिलसिले में संबंधित अधिकारी को सजा सुनाई थी और यह आदेश दिया था कि भविष्य में इन कुत्तों को कुत्ता नहीं कहा जाएगा, यही वजह रही कि राजधानी के समाचारपत्र बड़े आदर और सम्मान से कुत्तों के नाम और पद छापते रहे। आप हम सब जानते हैं कि वैसे भी हमारे समाचारपत्र कुत्तों का कितना ध्यान रखते हैं क्योंकि उससे लाभ हानि जुड़ी होती है।
हुआ यह कि एक रात दो बजे मंत्रीपुत्र के घर से थाने फोन आया। थाने की नींद उड़ गई। मंत्रीपुत्र ने डाँटा और कहा कि तुम सोते रहते हो और चोर चोरी करते रहते हैं। तुम्हें पता है बेबी रतन और बेबी गौरी का अपहरण हो गया है। थाने में तुरंत कार्यवाही की बात उठी। पर सब जानते थे कि मंत्रीपुत्र अभी तक अविवाहित है और उसने कसम खाई हुई है कि जब तक स्वयं मंत्री नहीं बन जाएगा शादी नहीं करेगा। ऐसी हालत में बेबी रतन और बेबी गौरी कहाँ से आ गए। इस सवाल का जवाब कोई न दे सका तो हवालात में बंद एक अपराधी ने दिया। उसने बताया, बेबी रतन और बेबी गौरी मैडम लूसी और सर जॉनसन की औलादें हैं जिन्हें मंत्रीपुत्र यू.एस. से खरीद कर लाए थे और अनजान तथा अनाड़ी इन्हें कुत्ते के पिल्ले कह उठे थे जिस पर उसी समय उनकी जुबान खिंचवा ली गई थी।
रतन और गौरी के अपहरण की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। स्थानीय पत्रकारों के बाद टी.वी. चैनल वाले धमक पड़े और पूरा थाना कैमरों, लाइटों, कटरों से भर गया। कुछ टी.वी.वाले मंत्रीपुत्र की कोठी पर पहुँच गए। सबसे पहले यह 'ब्रेकिंग न्यूज' 'जल्वा चैनल' ने दी। उसके बाद यह ब्रेकिंग न्यूज 'समकुल चैनल' पर शुरू हुई। उसके बाद तो घमासान शुरू हो गया। हर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज स्टोरी चलने लगी, रतन और गौरी के 'स्टिल्स' और 'फुटेज' की माँग इतनी बढ़ गई कि प्रोडक्शन हाउसोंवाले पागल हो गए।
चैनलों में तूफान मच गया। एक रिपोर्टर की नौकरी इसलिए चली गई कि वह रतन की फोटो नहीं ला सका। दूसरे चैनल में किसी का प्रोमोशन हो गया कि वह मंत्रीपुत्र की 'बाइट' ले आया। एक पत्रकार को पीटा गया, क्योंकि उसने मंत्रीपुत्र के कुत्ताघर, जिसे अंग्रेजी में सब 'केनल्ल' कहते थे, में घुसने की कोशिश की थी। दो पुलिसवाले सस्पेंड हो गए क्योंकि चार घंटे हो गए थे और उन्होंने रतन और गौरी का पता नहीं लगाया था। डी.एम. का ट्रांसफर होते होते बचा और एस.पी. को 'कारण बताओ' नोटिस दे दिया गया।
चैनलवालों ने पुलिस को पटाने का काम शुरू किया। वे चाहते थे कि इस पूरे ऑपरेशन में जिसे पुलिस ने 'आपरेशन ट्रुथ' का नाम दिया था, वे लगातार पुलिस के साथ रहें। 'जल्वा' चैनलवालों ने पुलिस को यह समझा कर पटाया कि 'आपरेशन ट्रुथ' के बाद चैनल पुलिस का इंटरव्यू दिखाएगा। यह बात 'चैनल फोर फाइव सिक्स'वाले को पता चल गई। उन्होंने पुलिस को पच्चीस हजार नकद देने का वायदा किया। कहा यह कि 'जल्वा'वालों की जगह उन्हें पूरे 'ऑपरेशन ट्रुथ' में साथ रखा जाए। यह बात 'मून चैनल'वालों को पता चली तो उन्होंने गृह मंत्रालय के एक सीनियर ऑफीसर से फोन कराया और आदेश दिया गया कि पुलिस 'मून चैनल'वालों को प्राथमिकता दे। बात इतने ऊपर पहुँच चुकी थी कि पुलिसवाले डरने लगे। डी.एम. को लगने लगा कि कल कहीं प्रधानमंत्री सचिवालय से फोन न आ जाए।
पुलिस ने छापे मारने शुरू किए। चार टीमें बनाई गईं और रात दिन रतन और गौरी की तलाश का काम शुरू हो गया। इसी दौरान मंत्रीपुत्र के पास फोन आया कि फलाँ फलाँ जगह पचास करोड़ रुपया न पहुँचाया गया तो रतन और गौरी की हत्या कर दी जाएगी। अब स्टोरी का एक नया 'ऐंगिल' निकल आया। चैनल विशेषज्ञों को बुला कर उनसे बहस कराने लगे। सुखद यह रहा कि चैनलवालों को इस मसले में विशेषज्ञ बदलने नहीं पड़े। दो चार आदमी जो राजनीति, समाज, वनस्पतिशास्त्र और खगोलशास्त्र के विशेषज्ञ थे और हर तरह के कार्यक्रमों में टी.वी. पर आया करते थे वही गौरी और रतनवाले मामले में भी आए और दर्शक यह सोच कर अचंभे में पड़ गए कि राजनीति के मर्मज्ञ कुत्तों के बारे में भी पूरी जानकारी रखते हैं। चैनलवाले गर्व से कहते थे कि विशेषज्ञता और 'प्रोफेशलनिज्म' के जमाने में हमने ऐसे लोग खोज रखे हैं जो संसार की किसी भी समस्या, ज्ञान विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में, लोक परलोक की किसी भी घटना के बारे में विद्वत्तापूर्ण ढंग से विचार व्यक्त कर सकते हैं।
ईश्वर का करना कुछ ऐसा हुआ कि पुलिस, सी.आई.डी., आई.बी., रॉ. और दूसरी खुफिया एजेन्सियों ने मिल कर रेड डालने शुरू किए और आखिरकार पता चला कि एक जगह शहर के बाहर एक फार्म हाउस में रतन और गौरी को रखा गया है। अपहरणकर्ता पूरे असलहे से लैस हैं। उनके पास बोफोर्स तोपों से ले कर 'एंटी-एयरक्राफ्ट गन' तक मौजूद है। अब तो सेना से मदद लेने की जरूरत पड़ी। गृह मंत्रालय ने सुरक्षा मंत्रालय से निवेदन किया और एक ले. जनरल के साथ ब्रिगेड भेज दी गई।
टी.वी. चैनलों पर बहस का मुद्दा यह था कि इस 'ऑपरेशन ट्रुथ' में रतन और गौरी सलामत निकल आएँगे या नहीं। यह भी जानकारी मिली कि अपहरणकर्ताओं ने मार्केट से दो सौ टन टी.एन.टी. भी खरीदी है और उसका जखीरा भी उनके पास है। टी.वी. चैनलों के वही विशेषज्ञ जो वनस्पति विज्ञान से ले कर सुपरसोनिक जेटों तक के विशेषज्ञ थे कहने लगे इतना 'एक्सप्लोसिव मैटीरियल' तो पूरे फार्म हाउस को ज्वालामुखी की तरह उड़ा देगा और जाहिर है उसमें नन्हे मुन्ने रतन और गौरी के बचने की क्या उम्मीद होगी। तब कहा गया कि यह दरअसल मनोवैज्ञानिक लड़ाई है। इसे भारत अकेले नहीं लड़ सकता। इसमें तो जब तक अमेरिका का सपोर्ट नहीं होगा यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। अमेरिका से कहा गया तो वहाँ से बड़ा सार्थक और उत्साहवर्धक जवाब आया। अमेरिका ने कहा कि वह तो संसार के हर कोने में शांति स्थापित करने के लिए दृढ़संकल्प है। जहाँ भी शांति भंग होने, मानव अधिकारों के हनन का सवाल उठता है अमेरिका उठ खड़ा होता है। और अब चूँकि भारत में ऐसी स्थिति आ गई है इसलिए अमेरिका अवश्य ही आएगा। यह भारत की सभ्यता है कि वह अमेरिका को आमंत्रित कर रहा है। यदि न भी कर रहा होता तो अमेरिका आता क्योंकि वह विश्व में शांति स्थापित करना चाहता है और यह उसके 'एजेंडे' का एक और पहला मुद्दा है। यही नहीं, अमेरिका ने घोषणा कर दी कि उसकी सेनाएँ ध्वनि से तेज चलनेवाले विमानों पर बैठ कर भारत के लिए रवाना हो चुकी हैं। हिंद महासागर में अमेरिकी बेड़ों को भारत की तरफ कूच करने का आदेश दे दिया गया है। और यह भी कहा गया कि भारत को चाहिए कि सेनाओं के पहुँचने से पहले कोकाकोला और पेप्सीकोला का पर्याप्त भंडार कर ले। मैक्डानाल्ड हैंबर्गर, अंकिल चिप्स, कनटकी चिकन, एफ.टी.जे. वगैरा की जितनी ज्यादा दुकानें खोली जा सकती हों खुलवा दे क्योंकि अमेरिकी सैनिक जाहिर है दाल रोटी नहीं खाएँगे। चूँकि यह आदेश था इसलिए इंतिजाम पूरा हो गया। बड़े बड़े अमेरिकी बाजार खुल गए जहाँ सुई से ले कर हवाई जहाज तक उपलब्ध था।
ऐसी तैयारी का नतीजा भी अच्छा निकला। लेजर बम से रतन और गौरी के एक अपहरणकर्ता को मार गिराया गया। दूसरा एक तहखाने में छिप गया था। उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी, उसे पकड़ा गया। अमेरिकी सैनिकों ने कहा कि हम इसे अमेरिका ले जाएँगे और चिड़ियाघर में बंद कर देंगे ताकि विश्व शांति भंग करनेवालों के लिए एक सबक हो।
चूँकि अमेरिकी सैनिकों के लिए पेप्सी, कोला, बियर, हैंबरगर आदि का बड़ा स्टाक था इसलिए उन्हें वापस जाने की जल्दी नहीं थी। उन्होंने कहा कि हम तो आपके देश से विश्वशांति भंग करनेवाली सभी शक्तियों को नष्ट करके ही जाएँगे। उनके इस विचार का स्वागत किया गया और वे यहाँ पेप्सी पी पी कर मोटे होने लगे।
जिस दिन थाने में रतन और गौरी पहुँचे उसी दिन वहाँ एक सिरकटी लाश भी पहुँची। रतन और गौरी के मिल जाने की वजह से थाने के चारों तरफ दफा 104 लगा दिया गया था, क्योंकि ओ.वी. वैनों से रास्ता बंद हो गया था और दर्शकों का सैलाब था जो अमेरिकी सैनिकों और रतन गौरी को देखने के लिए उमड़ पड़ा था। कई बार लाठी चार्ज हो चुका था पर दर्शक काबू में नहीं आ रहे थे। वे जयजयकार कर रहे थे। खुशी के मारे आपे से बाहर हुए जा रहे थे।
इसी बीच मैली कुचैली धोती बाँधे, तीन बच्चों को सँभाले किसी तरह गिरती पड़ती एक औरत थाने पहुँची। उसे पता लग गया था कि आज एक सिरकटी लाश थाने लाई गई है। किसी न किसी तरह यह औरत थाने के अंदर आ गई। वहाँ टीवी चैनलवाले भरे पड़े थे और अमेरिकी सैनिकों के साथ सिगरेटें पी रहे थे। एकआध बीयर की घूँट भी मिल जाती थी।
टी.बी.सी. चैनल की राधिका रमन ने देखा कि एक औरत सिरकटी लाश के पास खड़ी उसे पहचानने की कोशिश कर रही है। उसके साथ तीन छोटे छोटे बच्चे भी खड़े हैं। राधिका ने अपने बॉस सत्यकाम से कहा - 'सर, ये देखिए कितनी अच्छी स्टोरी है। सिरकटी लाश को यह औरत पहचानने की कोशिश कर रही है। तीन बच्चे पास खड़े हैं। इसे शूट करें सर?'
सत्यकाम बिगड़ कर बोला - 'क्या चाहती हो चैनल बंद हो जाए।'
'नहीं सर... लेकिन क्यों?' राधिका ने कहा।
सत्यकाम बोले - 'इस औरत, बच्चों और लाश का 'विजुअल' देख कर सी.ई.ओ. मिस्टर मेहरा मेरी तो छुट्टी कर देंगे।'
'क्यों सर?'
सत्यकाम बोले - 'ओ माई गॉड... तुम्हें ये भी बताना पड़ेगा? अरे हमारे चैनल पर 'ऐड' आते हैं, विज्ञापन समझीं?'
'हाँ सर।'
वो विज्ञापन किसके लिए होते हैं? कौन वह सामान खरीदता है? वह क्या देखना... 'चलो चलो कैमरा लगाओ... रिफ्लेक्टर... साउंड...' चैनल का संवाददाता चिल्लाने लगा क्योंकि थाने के अंदर बड़े खूबसूरत मंच पर रतन और गौरी को लाया जा रहा था। उनके पीछे पीछे मंत्रीपुत्र, कमल का फूल बना, आ रहा था। पीछे अधिकारी, सेना के पदाधिकारी आदि थे। संगीत बज रहा था। कबूतर और गुब्बारे हवा में छोड़े जा रहे थे। आतिशबाजी आसमान पर रंगबिरंगे करिश्मे दिखा रही थी। पूरी इमारत जगमगा रही थी। लगता था आज छब्बीस जनवरी या पंद्रह अगस्त है। चारों तरफ उल्लास, मस्ती, विजय का भव्य प्रदर्शन व्याप्त था।
उस औरत ने सिरकटी लाश पहचान ली थी। यह उसका पति ही था, औरत रो रही थी, पर मौज, मस्ती, आनंद, उल्लास, जश्न, गीत, संगीत के माहौल में उसकी आवाज कोई नहीं सुन रहा था।
उसके बच्चे अपने फटे पुराने कपड़ों में सहमे, सिकुड़े, मुँह खोले मंच पर होनेवाले तमाशे में डूबे हुए थे। वे न अपनी माँ को देख रहे थे, न बाप की सिरकटी लाश को।

Wednesday 18 July 2018

एक अलग रंग-भाषा और जन-भाषा के कवि : राजेश जोशी


     एक अलग रंग-भाषा और जन-भाषा के कवि :                              राजेश जोशी 


   


        राजेश जोशी जी 21वीं सदी के बचे हुए उन कवियों में शुमार है जिनकी कविता अपने समय का लोकप्रिय मुहावरा बनी है। एक अलग रंग-भाषा के, जन-भाषा के कवि । अलग चाल-ढाल की कविताएं । इनकी कविताएं आपको घुसपेठिया बनाती चलेगी। अपने समय से संवाद करने को उकसाएगी। नुक्ताचीनी बनाएगी । देश समाज व्यक्ति पत्थर फूल हवा पानी आकाश माने कि पृथ्वी की हर शह की पूंछ और मुंह के बीच के द्वंद्व से राब्ता कराएगी। राजेश जी की कविता से मैंने तो खुद को बहुत नकारा है। मैंने इन्हीं की कविताओं से पाया है कि अपने अंधेरे को रोशनी मत दिखाओ । अंधेरे में बैठकर अंधेरे के गीत गाओ। जब आपको कुछ ना सूझे। जब आपको कुछ ना विचारे । जब आपका हृदय सोचने लगे कि अब करने को करने को कुछ नहीं बचा तो आप राजेश जोशी जी की कविताओ के साथ बैठकर चाय पीजिए, आप सुंदर होते चले जाएगें।
राजेश जोशी जी को जन्मदिन की बधाई।
आशा करते है कि आप रहे या न रहे, आपके समय का मुहावरा रहेगा।


       ( 1 )
बच्चे काम पर जा रहे हैं 

कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह
बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?
क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल
पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।

 ( 2 )
रूको बच्‍चो

रूको बच्‍चो रूको !
सड़क पार करने से पहले रुको
तेज रफ़्तार से जाती इन गाड़ियों को गुज़र जाने दो
वो जो सर्र से जाती सफ़ेद कार में गया
उस अफ़सर को कहीं पहुँचने की कोई जल्‍दी नहीं है
वो बारह या कभी-कभी तो इसके बाद भी पहुँचता है अपने विभाग में
दिन, महीने या कभी-कभी तो बरसों लग जाते हैं
उसकी टेबिल पर रखी ज़रूरी फ़ाइल को ख़िसकने में

रूको बच्‍चो !
उस न्‍यायाधीश की कार को निकल जाने दो
कौन पूछ सकता है उससे कि तुम जो चलते हो इतनी तेज़ कार में
कितने मुक़दमे लंबित हैं तुम्‍हारी अदालत में कितने साल से
कहने को कहा जाता है कि न्‍याय में देरी न्‍याय की अवहेलना है
लेकिन नारा लगाने या सेमीनारों में बोलने के लिए होते हैं ऐसे वाक्‍य
कई बार तो पेशी दर पेशी चक्‍कर पर चक्‍कर काटते
ऊपर की अदालत तक पहुँच जाता है आदमी
और नहीं हो पाता इनकी अदालत का फ़ैसला

रूको बच्‍चो ! 
सडक पार करने से पहले रुको
उस पुलिस अफ़सर की बात तो बिल्‍कुल मत करो
वो पैदल चले या कार में
तेज़ चाल से चलना उसके प्रशिक्षण का हिस्‍सा है
यह और बात है कि जहाँ घटना घटती है
वहां पहुँचता है वो सबसे बाद में

रूको बच्‍चों रुको
साइरन बजाती इस गाडी के पीछे-पीछे
बहुत तेज़ गति से आ रही होगी किसी मंत्री की कार
नहीं, नहीं, उसे कहीं पहुँचने की कोई जल्‍दी नहीं
उसे तो अपनी तोंद के साथ कुर्सी से उठने में लग जाते हैं कई मिनट
उसकी गाड़ी तो एक भय में भागी जाती है इतनी तेज़
सुरक्षा को एक अंधी रफ़्तार की दरकार है
रूको बच्‍चो !
इन्‍हें गुज़र जाने दो
इन्‍हें जल्‍दी जाना है
क्‍योंकि इन्‍हें कहीं पहुँचना है
                              
                               ( 3 )
                            मारे जाएँगे 

जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जाएँगे
कठघरे में खड़े कर दिये जाएँगे

जो विरोध में बोलेंगे

जो सच-सच बोलेंगे, मारे जाएँगे
बर्दाश्‍त नहीं किया जाएगा कि किसी की कमीज हो

उनकी कमीज से ज्‍यादा सफ़ेद

कमीज पर जिनके दाग नहीं होंगे, मारे जाएँगे
धकेल दिये जाएंगे कला की दुनिया से बाहर

जो चारण नहीं होंगे

जो गुण नहीं गाएंगे, मारे जाएँगे
धर्म की ध्‍वजा उठाने जो नहीं जाएँगे जुलूस में

गोलियां भून डालेंगी उन्हें, काफिर करार दिये जाएँगे
सबसे बड़ा अपराध है इस समय निहत्थे और निरपराधी होना

जो अपराधी नहीं होंगे, मारे जाएँगे

( 4 )
उन्होंने रंग उठाए 

उन्होंने रंग उठाए

और आदमी को मार डाला

उन्होंने संगीत उठाया

और आदमी को मार डाला

उन्होंने शब्द उठाए

और आदमी को मार डाला ।
हत्या का

एकदम नया नुस्ख़ा

तलाश किया उन्होंने

उन्होंने

आदमी के गुस्सैल चेहरे

और चाकू को

चमकदार

रंगीन दीवारों और रोशनियों के बीच

बेहद सूझ-बूझ

और सलीके से

सजा दिया

और लड़ाई को कुचल दिया
और आदमी को मार डाला ।


    ( 5 )

हर जगह आकाश


बोले और सुने जा रहे के बीच जो दूरी है
वह एक आकाश है
मैं खूंटी से उतार कर एक कमीज पहनता हूं
और एक आकाश के भीतर घुस जाता हूं
मैं जूते में अपना पांव डालता हूं
और एक आकाश मोजे की तरह चढ़ जाता है
मेरे पांवों पर
नेलकटर से अपने नाखून काटता हूं
तो आकाश का एक टुकड़ा कट जाता है
एक अविभाजित वितान है आकाश
जो न कहीं से शुरू होता है न कहीं खत्म
मैं दरवाजा खोल कर घुसता हूं, अपने ही घर में
और एक आकाश में प्रवेश करता हूं
सीढ़ियां चढ़ता हूं
और आकाश में धंसता चला जाता हूं
आकाश हर जगह एक घुसपैठिया है

 ( 6 )

पृथ्वी का चक्कर

यह पृथ्वी सुबह के उजाले पर टिकी है
और रात के अंधेरे पर
यह चिड़ियो के चहचहाने की नोक पर टिकी है
और तारों की झिलमिल लोरी पर
तितलियाँ इसे छूकर घुमाती रहती हैं
एक चाक की तरह
बचपन से सुनता आया हूँ
उन किस्साबाजों की कहानियों को जो कहते थे
कि पृथ्वी एक कछुए की पीठ पर रखी है
कि बैलों के सींगों पर या शेषनाग के थूथन पर,
रखी है यह पृथ्वी
ऐसी तमाम कहानियाँ और गीत मुझे पसन्द हैं
जो पृथ्वी को प्यार करने से पैदा हुए हैं!
मैं एक आवारा की तरह घूमता रहा
लगातार चक्कर खाती इस पृथ्वी के
पहाड़ों, जंगलों और मैदानों में
मेरे भीतर और बाहर गुज़रता रहा
पृथ्वी का घूमना
मेरे चेहरे पर उकेरते हुए
उम्र की एक एक लकीर।


( 7 )
यह समय

यह मूर्तियों को सिराये जाने का समय है ।

मूर्तियाँ सिराई जा रही हैं ।
दिमाग़ में सिर्फ़ एक सन्नाटा है
मस्तिष्क में कोई विचार नहीं
मन में कोई भाव नहीं
काले जल में, बस, मूर्ति का मुकुट
धीरे-धीरे डूब रहा है !







Saturday 2 September 2017

रेहाना जब्बार का फाँसी पूर्व लिखा खत - " मुझे हवाओं में मिल जाने दे माँ "


      " मुझे हवाओं में मिल जाने दे माँ  "

                   

                        - रेहाना जब्बार -





   

  1.        भारतीय न्याय प्रणाली द्वारा बाबा राम रहीम को बलात्कार के इल्ज़ाम में दी गई दस-दस साल की सजा भले ही बेहद कम हो लेकिन कम से कम न्यायालय ने अपनी साख तो बचाई वरना लोकतंत्र का डब्बा तो अपना जादू बिखेर ही रहा है। यह निर्णायक फैसला हमें ईरान की रेहाना जब्बारी की याद दिलाता है जिसने अपने बलात्कार के आरोपी की हत्या तब की थी, जब आरोपी उसका बलात्कार करने की कोशिश कर रहा था। रेहाना को इस जुर्म के लिए ईरान न्यायालय ने फाँसी की सज़ा मुकर्रर की थी। अब सवाल यह है कि अगर वह लड़की भी उसी वक़्त आरोपी की हत्या कर देती तो हमारी न्यायालय प्रणाली क्या करती...? यह बस एक छोटा-सा सवाल है। इस पर ज़्यादा सोचिएगा भी मत ..? क्योंकि हम यहाँ इस निर्णायक फैसले के उपलक्ष्य में रेहाना जब्बारी का फाँसी से पूर्व लिखा गया खत पेश कर रहे है जो शायद हमारे भविष्य की कहानी हो सकता है -



प्यारी शोले,
                मुझे आज पता चला कि अब मेरी क़िसास की बारी आ गई है। मुझे इस बात कि दुख है कि आपने मुझे यह क्यों नहीं बताया कि मैं अपनी ज़िंदगी की किताब के आख़िरी पन्ने तक पहुँच चुकी हूँ।आपको नहीं लगता कि मुझे ये जानना चाहिए था..?आप जानती हैं कि मैं इस बात से कितनी शर्मिन्दा हूँ कि आप दुखी हैं। आपने मुझे आपका और अब्बा का हाथ चूमने का मौक़ा क्यों नहीं दिया?

       दुनिया ने मुझे 19 बरस जीने का मौक़ा दिया। उस अभागी रात को मेरी हत्या हो जानी चाहिए थी। उसके बाद मेरे जिस्म को शहर के किसी कोने में फेंक दिया जाता और कुछ दिनों बाद पुलिस आपको मेरी लाश की पहचान करने के लिए मुर्दाघर ले जाती और वहाँ आपको पता चलता है कि मेरे साथ बलात्कार भी हुआ था। मेरा हत्यारा कभी पकड़ा नहीं जाता क्योंकि हमारे पास उसके जितनी दौलत और ताक़त नहीं है।उसके बाद आप अपनी बाक़ी ज़िंदगी ग़म और शर्मिंदगी में गुज़ारतीं और कुछ सालों बाद इस पीड़ा से घुट-घुट कर मर गई होतीं और ये भी एक हत्या ही होती।

     लेकिन उस मनहूस हादसे के बाद कहानी बदल गयी। मेरे शरीर को शहर के किसी कोने में नहीं बल्कि कब्र जैसी एविन जेलउसके सॉलिटरी वार्ड और अब शहर-ए-रे की जेल जैसी कब्र में फेंका जाएगा। लेकिन आप इस नियति को स्वीकार कर लें और कोई शिकायत न करें। आप मुझसे बेहतर जानती हैं कि मौत ज़िंदगी का अंत नहीं होती।

       आपने मुझे सिखाया है कि हर इंसान इस दुनिया में तजुर्बा हासिल करने और सबक सीखने आता है। हर जन्म के साथ हमारे कंधे पर एक ज़िम्मेदारी आयद होती है। मैंने जाना है कि कई बार हमें लड़ना होता है।मुझे अच्छी तरह याद है कि आपने मुझे बताया था कि बघ्घी वाले ने उस आदमी का विरोध किया था जो मुझपर कोड़े बरसा रहा था लेकिन कोड़ेवाले ने उसके सिर और चेहरे पर ऐसी चोट की जिसकी वजह से अंततः उसकी मौत हो गयी। आपने मुझसे कहा था कि इंसान को अपने उसूलों को जान देकर भी बचाना चाहिेए।
  
         जब हम स्कूल जाते थे तो आप हमें सिखाती थीं कि झगड़े और शिकायत के वक़्त भी हमें एक भद्र महिला की तरह पेश आना चाहिए। क्या आपको याद है कि आपने हमारे बरताव को कितना प्रभावित किया हैआपके अनुभव ग़लत थे। जब ये हादसा हुआ तो मेरी सीखी हुई बातें काम नहीं आयीं। अदालत में हा़ज़िर होते वक़्त ऐसा लगता है जैसे मैं कोई क्रूर हत्यारा और बेरहम अपराधी हूँ। मैं ज़रा भी आँसू नहीं बहाती। मैं गिड़गिड़ाती भी नहीं। मैं रोई-धोई नहीं क्योंकि मुझे क़ानून पर भरोसा था।

       लेकिन मुझपर ये आरोप लगाया गया कि मैं जुर्म होते वक़्त तटस्थ बनी रही। आप जानती हैं कि मैंने कभी एक मच्छर तक नहीं मारा और मैं तिलचट्टों को भी उनके सिर की मूँछों से पकड़कर बाहर फेंकती थी। अब मैं एक साजिशन हत्या करने वाली कही जाती हूँ। जानवरों के संग मेरे बरताव की व्याख्या मेरे लड़का बनने की ख़्वाहिश के तौर पर की गयी। जज ने ये देखना भी गंवारा नहीं किया कि घटना के वक़्त मेरे नाख़ून लंबे थे और उनपर नेलपालिश लगी हुई थी।

     जजों से न्याय की उम्मीद करने वाले लोग कितने आशावदी होते हैं! किसी जज ने कभी इस बात पर सवाल नहीं उठाया कि मेरे हाथ खेल से जुड़ी महिलाओं की तरह सख्त नहीं हैं। ख़ासतौर पर मुक्केबाज़ लड़कियों के हाथों की तरह और ये देश ,qजिसके लिए आपने मेरे दिल में मुहब्बत भरी थीवो मुझे कभी नहीं चाहता था। जब अदालत में  मेरे ऊपर सवाल-जवाब का वज्र टूट रहा था और मैं रो रही थी और अपनी ज़िंदगी के सबसे गंदे अल्फ़ाज़ सुन रही थी तब मेरी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। जब मैंने अपनी ख़ूबसूरती की आख़िरी पहचान अपने बालों से छुटकारा पा लिया तो मुझे उसके बदले 11 दिन तक तन्हा-कालकोठरी में रहने का इनाम मिला।

      प्यारी शोलेआप जो सुन रही हैं उसे सुनकर रोइएगा नहीं। पुलिस थाने में पहले ही दिन एक बूढ़े अविवाहित पुलिस एजेंट ने मेरे नाखूनों के लिए मुझे चोट पहुँचायी। मैं समझ गयी कि इस दौर में सुंदरता नहीं चाहिए। सूरत की ख़ूबसूरती,ख़्यालों और ख़्वाबों की ख़ूबसूरतीख़ूबसूरत लिखावटआँखों और नज़रिए की ख़ूबसूरती और यहाँ तक कि किसी प्यारी आवाज़ की ख़ूबसूरती भी किसी को नहीं चाहिए।

     मेरी प्यारी माँमेरे विचार बदल चुके हैं और इसके लिए आप ज़िम्मेदार नहीं है। मेरी बात कभी ख़त्म नहीं होने वाली और मैंने इसे किसी को पूरी तरह दे दिया है ताकि जब आपकी मौजूदगी और जानकारी के बिना मुझे मृत्युदंड दे दिया जाए तो उसके बाद इसे आपको दे दिया जाए। मैं आपके पास अपने हाथों से लिखी इबारत धरोहर के रूप में छोड़ी है।

     हालाँकि, मेरी मौत से पहले मैं आपसे कुछ माँगना चाहती हूँ, जिसे आपको अपनी पूरी ताक़त और कोशिश से मुझे देना है। दरअसल बस यही एक चीज़ है जो अब मैं इस दुनिया से, इस देश से और आपसे माँगना चाहती हूँ। मुझे पता है आपको इसके लिए वक़्त की ज़रूरत होगी। इसलिए मैं आपको अपनी वसीयत का हिस्सा जल्द बताऊँगी। आप रोएँ नहीं और इसे सुनें। मैं चाहती हूँ कि आप अदालत जाएँ और उनसे मेरी दरख़्वास्त कहें। मैं जेल के अंदर से ऐसा ख़त नहीं लिख सकती जिसे जेल प्रमुख की इजाज़त मिल जाए, इसलिए एक बार फिर आपको मेरी वजह से दुख सहना पड़ेगा। मैंने आपको कई बार कहा है कि मुझे मौत की सज़ा से बचाने के लिए आप किसी से भीख मत माँगिएगा लेकिन यह एक ऐसी ख़्वाहिश है जिसके लिए अगर आपको भीख माँगनी पड़े तो भी मुझे बुरा नहीं लगेगा।

      मेरी अच्छी माँ, प्यारी शोले, मेरी ज़िंदगी से भी प्यारी, मैं ज़मीन के अंदर सड़ना नहीं चाहती। मैं नहीं चाहती कि मेरी आँखे और मेरा नौजवान दिल मिट्टी में मिल जाए इसलिए मैं भीख माँगती हूँ कि मुझे फांसी पर लटकाए जाने के तुरंत बाद मेरे दिल, किडनी, आँखें, हड्ड्याँ और बाक़ी जिस भी अंग का प्रतिरोपण हो सके। उन्हें मेरे शरीर से निकाल लिया जाए और किसी ज़रूरतमंद इंसान को तोहफे के तौर पर दे दिया जाए। मैं नहीं चाहती कि जिसे मेरे अंग मिलें उसे मेरा नाम पता चले, वो मेरे लिए फूल ख़रीदे या मेरे लिए दुआ करे। मैं सच्चे दिल से आपसे कहना चाहती हूँ कि मैं अपने लिए कब्र भी नहीं चाहतीं, जहाँ आप आएँ, मातम मनाएँ और ग़म सहें। मैं नहीं चाहती कि आप मेरे लिए काला लिबास पहनें। मेरे मुश्किल दिनों को भूल जाने की आप पूरी कोशिश करें। मुझे हवाओं में मिल जाने दें।

       दुनिया हमें प्यार नहीं करती। इसे मेरी ज़रूरत नहीं थी और अब मैं इसे उसी के लिए छोड़ कर मौत को गले लगा रही हूँ क्योंकि ख़ुदा की अदालत में मैं, इंस्पेक्टरों पर मुक़दमा चलावाऊँगी, मैं इंस्पेक्टर शामलू पर मुक़दमा चलवाऊँगी । मैं जजों पर मुक़दमा चलवाऊँगी और देश के सुप्रीम कोर्ट की अदालत के जजों पर भी मुक़दमा चलवाऊँगी जिन्होंने ज़िंदा रहते हुए मुझे मारा और मेरा उत्पीड़न करने से परहेज नहीं किया। दुनिया बनाने वाली की अदालत में मैं डॉक्टर फरवंदी पर मुक़दमा चलवाऊँगी, मैं क़ासिम शाबानी पर मुक़दमा चलवाऊँगी और उन सब पर जिन्होंने अनजाने में या जानबूझकर मेरे संग ग़लत किया और मेरे हक़ को कुचला और इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि कई बार जो चीज़ सच नज़र आती है वो सच होती नहीं।

      प्यारी नर्म दिल शोले, दूसरी दुनिया में मैं और आप मुक़दमा चलाएंगे और दूसरे लोग अभियुक्त होंगे। देखिए, ख़ुदा क्या चाहते हैं. ..मैं तब तक आपको गले लगाए रखना चाहती हूँ जब तक मेरी जान न निकल जाए। मैं आपसे बहुत प्यार करती हूँ।

रेहाना
01, अप्रैल, 2014

( साभार ' नवगीत ' पत्रिका जनवरी 2016 )

" भवन्ति " - संम्पादक के जीने की ज़रूरत।

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