Thursday 17 August 2017

ज़ीनत मनसूरी का लेख - हम औरत है ..?

               

                       हम औरत हैं....?                             


    लेखक - ज़ीनत मनसूरी


   




     
   
     


     
       


       एक औरत होने के बावजूद मैं मर्द और औरत को बराबर मौका देती हूँ कि आप दोनों अपने मन मे एक लंबी रेखा खीचिए और दौड़ लगाइये । दौड़ने के मार्ग में आप को बताते चलती हूँ  कि आपको अपनी दौड़ उतरी हुई विक्षोभ से शुरू करनी है और वहाँ से दौड़ते हुए आना है - आधुनिक अमेरिका और फिर बेहतर ज़िन्दगी की छटपटा । लेटिन अमेरिका के कीचड़ से सने मार्गो से होते हुए , विकसित और आधुनिक यूरोप का एक चक्कर लगा कर अफ्रीका के  शोषण के घाव से बहते मवाद को तेर कर एशिया के चक्कर लगाने हैं ।
     
       इस बीच जापानी सैनिको द्वारा कोरिया की औरतों के साथ जो किया गया, उसकी पूरी जानकारी जुटानी है । खाड़ी देशों की औरतों के वास्तविक हालातों के साथ-साथ अफगान से होते हुए पाकिस्तान और फिर अपनी पसंद के नाम वाले हिन्दुस्तान या भारत या फिर इंडिया में प्रवेश करना है । उसके बाद मेरे लिखे को आप दोनों ने जो दौड़ के दौरान अनुभव किया है । तथ्यों के आधार पर काटना और बताना कि बाकी मुल्कों के मुक़ाबले हिंदुस्तान में औरतों को ज़्यादा हकूक प्राप्त हैं...? यह भी तर्क देना कि यहां की औरतें-लड़कियां काफी पहले से ही सशक्त है और बताना कि रज़िया सुलतान ने  कैसे अपने दम पर सत्ता हासिल की थी और ये ज़रूर छुपा लेना कि हमारे यहाँ हमारे ईश्वर सदा से ही अपनी अप्सराओं का प्रयोग मुनियों के तप को भंग करने और उनकी काम वासना को जगाने के लिए करते थे। यह ईश्वर मुनियों की औरतों के साथ भेस बदल कर उनकी देह को भोगते थे । यह सब जरूर छुपा लेना नहीं तो सम्भवतः हमारी सभ्यता का नग्न सत्य उन सभी देशों के सामने आ जाएगा जिनकी आप ने दौड़ लगाई है । इन देशों के सामने बस वर्तमान का ही सत्य जाना चाहिए।

     भारत की देह पर बड़े छोटे घाओं बहते मवाद में आज भी वर्ण व्यवस्था के कीड़ें बिलबिला रहे हैं । इन के होने की वजह से आज भी शूद्रों की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है । वही दूसरी ओर स्त्रियों का वर्तमान और सभ्य भारत में क्या स्थान रहा है । यह एक विचारणीय बिंदु है । इतने दशकों पश्चात क्या हम लैंगिक पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा से उभर पाए हैं या अभी भी उनमें उलझे हुए हैं ? यह एक अहम सवाल है । क्यों वह आगे बढ़ कर भी पीछे रह जाती है। दुगना श्रम कर भी आश्रमिक कहलाती है। क्या वह उस स्थान पर भी खड़ी नहीं होती थी कि उन्हें वर्ण व्यवस्था में स्थान दिया जा सके या उनके लिए पांचवा स्त्री वर्ण ठहर सके।


   वर्तमान संदर्भों में देखें तो केवल समय बदला है । पूर्वाग्रह का दोष कहीं न कहीं आज भी मौजूद हैं। आए दिन न्यूज चैनलों में, अखबारों में , बराबरी ने नाम पर होने वाली हिंसक गतिविधियां , कत्ल व आत्महत्या की खबरें सुनते /पढ़ते है । इससे क्या साबित होता है । क्या ये तथा कथित कहानी या क्रूरता किस चीज़ का परिणाम है जहां पुरुष 9 घंटे काम करके भी " इम्पोर्टेन्ट पिलर ऑफ द फैमिली " कहलाते हुए गर्व महसूस करता है वहीं उस घर की महिला उससे दुगना 9 नहीं 18 घंटे नॉन स्टॉप काम करती है फिर भी वह सिर्फ स्त्री बन कर रह जाती है । स्त्री शब्द के मायने कमज़ोर नहीं है । परंतु आज उसे कहाँ पहुंच दिया गया है ? जहां गूगल स्त्री शब्द का अर्थ "मनुष्य जाति का विशेष सदस्य " दिखाता है । वहीं अब साथ में अन्य अर्थ "पत्नी या जोरू " को भी रेखांकित करता है । क्या हम आधुनिकता की और बढ़ रहे हैं या अमौलिक विचारधारा को स्थान दे रहे हैं..?

      2011 की जनगणना में भी कोई खास फ़र्क देखने को नहीं मिला है । कहना न होगा कि वर्ण व्यवस्था आज भी समाज में अपने कदम जमाए हुए है । परंतु स्त्रियों के लिए अच्छी सूचना यह है कि जहां उन्हें उस वर्ण व्यवस्था में स्थान प्राप्त नहीं था , वहीं  वर्तमान में चल रही वर्ण व्यवस्था में उन्हें स्थान दिया जा रहा है। भारत सरकार ने घरेलू महिलाओं को कैदियों और भिखारियों के आर्थिक वर्ण की गणना में एक बाद फिर शामिल किया गया । इस तरह सरकार द्वारा कहे जाने वाले वाक्य कहा तक सही है जब प्रधानमंत्री जी कहते है -"महिलाओं को मिला संम्मान "


      स्त्री आज भी रेस में तो दौड़ रही है पर कहीं न कहीं प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार कर चुकी है कि वह कुछ नहीं करती क्योंकि उन्हें यह सोचने का अवसर ही नहीं दिया जाता है कि वह कुछ करती हैं या कर सकती हैं । उदाहरण के रूप में मास्टर शैफ संजीव कपूर को ले सकते हैं , जो खुद रसोई में खाना बनाने का काम करते हैं और उनकी इंटरनेट पर मौजूद सैलेरी टू मिलियन डॉलर है । हालांकि स्त्रियां भी इस प्रोफेशन में कमा रहीं हैं ,परंतु सवाल यह है कि क्या घर पर भी काम कर जो संजीव कपूर होटल में करते है उन्हें वेतन तो क्या एक अहम स्थान तक नही दिया जाता है ? दोस्तों जवाब हम सबके पास है । उसी प्रकार पुरुष अपने ऑफिस में सेक्रेट्री रखता है जो उसका एकॉउंट संभाले और उसके लिए वह उसे वेतन देता है , परंतु कहीं न कहीं वही काम घर की स्त्री कर रही होती है जिसे सेक्रेटरी सूचक शब्द से पुकारना सही न होगा , क्योंकि वह उससे बढ़कर काम करती है । घर का सारा हिसाब किताब उसके पास होता है और वह होटल मैनेजमेंट का कोर्स किए बिना उस सेक्रेटरी से बेहतर मैनेजमेंट करती है तो फिर क्या ये मान लिया जाए कि पुरुष को मुफ्त की नौकरानी की आवश्यकता होती है क्योंकि सब प्रत्यक्ष होते हुए भी कानून अंधा होता है ।

      स्त्रियों के लिए क्या दृष्टि बनाई गई है और वह कितनी सक्षम है इसमे कोई दोहराए नहीं है । बाहर काम करने वाली स्त्रियां सेल्फ इंडिपेंडेंट तो होती ही है वहीं दूसरी ओर घरों में काम करने वाली अवैतनिक स्त्रियां भी कई ज़्यादा सक्षम हैं क्योंकि उनके पास जितना प्रेक्टिकल तजुर्बा है, वह किताबी ज्ञान से परे हैं। माँ बच्चे के हाव-भाव क्रियाएं देख उसकी सांकेतिक भाषा को समझ जाती है जो उस परिवार में रहने वाले पुरुष के लिए आम बात नहीं है । वहीं उसे दूसरी दृष्टि से देखें तो पुरुष अपने बच्चे के देखभाल के लिए आया रखता है जिसे वह वेतन देता है परंतु वही काम जब माँ करती है तो उसका कोई मोल नहीं क्योंकि वह उसका बच्चा है उसकी जिम्मेदारी है और तथाकथित रूप से उस बच्चे के पैदा होने में उस पुरुष का कोई हाथ नहीं है ।

       भारत में अभी भी लगभग 80% स्त्रियाँ चुपचाप पूर्वाग्रह पर चल रही है । आए दिन हताहत होती है । अपनी आवाज़ उठाने के लिए तैयार नहीं होती हैं । यदि स्त्रियां सेल्फ इंडिपेंडेंट होगी और अपने लिए आवाज़ उठा पाएं तो नहीं लगता कोई भी उन्हें हीन दृष्टि से देखे या उन पर नज़र उठा पाए । स्त्रियों के साथ होने वाली क्रूरता इत्यादि का एक कारण मैं इसे भी मानती हूं कि खुद कंही न किन्हीं स्त्रियों में आगे बढ़ने की चाह मरती सी जा रही है ।

1 comment:

  1. बिलकुल सही लिखा है बधाई l

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