Tuesday 22 August 2017

मानसिकताओं का मायाजाल और हमारी सरकारें


            मानसिकताओं का मायाजाल                             और हमारी सरकारें

                      

                      -मनोरंजन कृष्णा-




     एक ऐसे वक्त जब विज्ञान अपनी महत्ता और श्रेष्ठता को साबित कर चुका है। पूरी दुनिया नित्य नए तरक़्क़ी की ओर विकासशील है। हिंदुस्तान हर रोज़ इडियट बॉक्स और 180 देशों की सूची में 136 वें नम्बर पर रहने वाली मीडिया के सहारे भाँति- भाँति के मायाजाल में उलझ जाता है , यहाँ असम, गुजरात की बाढ़ में डूबते लोग,मेधा पाटकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन, लगातार सीवर में काम करने वाले मजदूरों की मौत के बजाय , सुर्खियों में क्या है...? कल चोटी काट ली, तो आज अमित शाह और अहमद पटेल में कौन चाणक्य ?  जैसे मुद्दे चल रहे हैंअःऔर ये मुद्दे जैसे ही ख़त्म होते हैं , पूरा फ़ोकस हिन्दू बनाम मुस्लिम वाले मुद्दों पर कर दिया जाता है, जबकि सच ये है कि एक आम जनता कभी भी लड़ाई की बात सोचती ही नहीं हैं।

    कई दफ़ा कह चुका हूँ । हमसे ही हमारा समाज है। मगर कुछ लोग सोचते हैं कि हम ही तय करते हैं कि हमारा समाज कैसा होगा। जैसें कि किताबें सदा से सरकार के लिए अपने हित साधने का माध्यम रही है। हर सरकार सत्ता काबिज़ होने पर किताब का पुनर्लेखन करती है जिससे कि पुस्तकें सरकार के छुपे हुए एजेंडा ( hidden agenda) को अच्छी तरीके से लागू कर सके और पढ़ने वाले के दिमाग को सरकार का समर्थक बना दे।
 
      अकबर महान को टेक्स्ट बुक से निकाल फेंकना चाहते हैं। शायद इन्हें मालूम नहीं , अकबर ने हिंदुस्तान को एक करने के लिए अपना धर्म छोड़ ' दीन-ए-इलाही' धर्म बना लोगों को एक करने की कोशिश की। बच्चों को ये बताना कि फ़लां मुसलमान शासक ने कत्लेआम किया, फ़लां मुसलमान शासक मंदिर लूट गया। यदि बताना है तो इसे इस तरीके से बताया जाए कि अगर वहाँ तुम होते तो क्या प्रयास कर सकते थे ? ऐसी घटना इएलिये बताई जाए कि फिर ऐसी नौबत ना आए। लेकिन यहाँ तो माज़रा ही उल्टा है, पूरी कोशिश है कि बच्चा एक दूसरे कौम के लिए नफरत ही सीखे।इसकी नींव विद्यालय में डाल दी जाती है जो कॉलेज से लेकर समाज,धर्म हर जगह व्याप्त है। हमारे समाज ने यथार्थवादी प्रश्न को पागलपन माना और आध्यात्मिक प्रश्न को विद्वता एवं श्रेष्कर।

      एक दूसरे के प्रति नफरत की व्याख्या करने में टेलीविजन और सोशल साइट्स के हद से ज्यादा दखलंदाजी से बहुत बदलाव आया है। खासतौर पर कॉरपोरेट न्यूज़ चैनल जिनका मक़सद पैसे बनाने के साथ अपना निज़ी हित साधना है जिनमें इनका प्रमुख मक़सद है - इंसान को इंसान से लड़वाना। चाहे वो धार्मिक आधार पर लड़वाना हो या एक धर्म के अंदर के विभिन्न जातियों को आपस में लड़वाना। टाइम्स नाउ की नाविका कुमार से जब एक डिबेट में एक प्रतिनिधि ने बच्चों की मौत से जुड़े सवाल पूछे तो उन्होंने कहा कि  ये डिबेट वंदे मातरम पर है और आप असली मुद्दे से भटकाना चाहते हैं। इससे सनसनी खेज कथित पत्रकारों की संवेदनशीलता का पता लगा सकते हैं। अब जमाना बदल गया। जब लोग दिल से पत्रकार होते थे। अब दिमाग से लोग पत्रकार बन रहे हैं । अब हर रिपोर्टिंग नफे-नुकसान के आकलन के साथ किया जा रहा है हिंदुस्तान में सारे के सारे निज़ी चैनल हैं जिनका अपना निज़ी मक़सद है। प्रिंट मीडिया इनके राइटिंग पार्टनरस बने हैं। फिर इनसे हम उम्मीद ही क्यों सच का रखें और जब उम्मीद नहीं तो इन्हें देखे पढें और सुने क्यों ?

     हिंदुस्तान में समाज के मानसिकता को इस तरीके से निर्मित किया गया है कि लोग हर छोटी से छोटी घटना के लिए नेता को ज़िम्मेदार मानते हैं। लेकिन  ये बात कुछ हद तक ही सही है क्योंकि यहाँ हर घटना के लिए किसी ना किसी अधिकारी की भूमिका जरूर तय होती है। लोक सेवक अधिकारी के हस्ताक्षर के बगैर एक भी रुपया निकाला नहीं जा सकता है । साथ ही ये रुपये किस लिए निकाले जा रहें हैं इसका विस्तृत व्योरा तय होता है, इस मद का कहाँ - कहाँ प्रयोग होना है, कैसे खर्च होने है सब कागजों पर तय होता है। किस किस अधिकारी की भूमिका क्या-क्या होगी ये बकायदे अच्छे से तय होते हैं।
 
       अब रही बात ये अधिकारी अच्छे पढे लिखे होते हैं। इनमें से ज़्यादातर UPSC, SSCऔर राज्य PCS से चुन कर आते हैं। इनके क्षमता,प्रतिभा पर कभी कोई उँगली नहीं उठा सकता क्योंकि ये हिंदुस्तान के बेहतरीन खतरनाक दिमागों में से एक होते हैं। जैसे ही ये पद संभालते हैं। पहले दिन ही मारे लोभ का इनका ईमान डगमगा जाता है। भ्रष्टाचार श्रृंखला में ये जल्द ही डूब जाते हैं। लेकिन चूँकि होते हैं दिमाग वाले लेकिन एकदम डरपोक । जरा सी गीदड़ भभकी पर इनकी साँसे फूल जाती हैं तो तुरंत भेजा का इस्तेमाल करते हुए नेताओं के साथ मिलीभगत करते हैं और मिल के मलाई डकारते हैं। लेकिन जैसे ही भ्रष्टाचार से लेकर जबाबदेही की बात आती है ये कन्नी काटते हुए बिल में दुबक लेते हैं । पूरा का पूरा इल्ज़ाम नेताओं के मत्थे आता है।

       मैं ये कतई नहीं कह रहा हूँ कि नेता भ्रष्टाचारी, लोभी नहीं हैं या उनकी जबाबदेही नहीं है लेकिन उस अधिकारी और लोकसेवक से कम है। यहाँ सबसे गौर करने वाली बात है कि जो कुर्सी पर बने अधिकारी हैं वो लोक सेवक हैं जिन्हें प्रशिक्षण के साथ साथ तमाम तरीके बताए जाते हैं कि आपको लोगों से किस प्रकार कनेक्टेड रहना चाहिए। किस प्रकार आप लोगों की सेवा कर सकते हैं। ये नाम के तो लोकसेवक होते हैं लेकिन ये किसी आम नागरिक से अपने चैंबर में मिलना तक पसंद नहीं करते हैं। जबकि नेता भले ही किसी भी दल का हो कितना ही बड़ा क्यों ना बदमाश हो , तत्काल आपके दुःख में जरूर शामिल होते हैं।
 
       मैने देखा है कई छुटभैये नेताओं को भी जो आपकी मदद के लिए जान की बाजी तक लगा देते हैं वो भी बिना किसी धार्मिक,जातिगत भेदभाव के और बड़े से बड़े लोकसेवक अधिकारी को मुँह फेरते देखा है। जो छुटभैये होते हैं वो हमारे ही बीच के होते हैं और आगे भी रहना होता है तो ये आम लोगों से ज्यादा जुड़े होते हैं वनिस्पत उन लोकसेवकों के जिनका कर्त्तव्य और उद्देश्य ही होता है लोगों की भलाई करना।

     असल में कह सकते है कि भारतीय गणतंत्र का ढाँचा इस तरीके से बना हुआ है अगर यहाँ कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री ना भी रहे तो देश वैसे ही चलता रहता है। इसमें कोई शक नहीं कि लोकसेवक देश के लिए जो योगदान देते हैं वो बहुत महत्वपूर्ण है और इनके कार्य की सराहना की जानी चाहिए, लेकिन बदले में जो इन्होंने देश को छला है वो बहुत ज्यादा है। ये लोकसेवक नीति निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं और बदले में एक मोटी कीमत (वैध और अवैध), सुविधा वसूलते हैं। PMO में बॉस भले ही PM हो लेकिन इन अधिकारियों को किसी का यू टर्न कराने में मिनट भी नहीं लगेगा। जैसे कि मनरेगा जैसी लूट की योजना को चालू रखना, आधार जैसे जासूसी कार्यक्रम को धन विधेयक बना कर चलाते रहना ।

    हमारी सरकारें भी यहीं चाहती है कि कोई ना पढ़े। गर पढे भी तो सच ना जाने और प्रश्न तो कतई ना हो क्योंकि इन्हें इसी तरह के एक अच्छा, तेज़ हस्तलेखन करने वाला उम्मीदवार चाहिए जिसने अपने अंदर बहुत सारी सूचना एकत्रित कर ली हो और जो सही समय पर कॉपियों पर उल्टियां कर सके।

      ऐसे में हमारा ये दृढ़निश्चयी समर्पित प्रयास होना चाहिए कि हम पढ़ेंगे और ऐसे पढ़ेंगे कि तुम्हारा मक़सद कभी सफल ना हो सके।


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