Friday 30 June 2017

ट्यूबलाइट : राष्ट्रीयता और राजनीति का अक्स


       ट्यूबलाइट राजनीती और देशभक्ति का पर्याय                                                                                               


                                                                                                                           -- अहमद फहीम



" तुमने अपना काम पूरा कर दिया है।
    अगर कंधे दुख रहे हो,
    कोई बात नहीं ।
    यकीन करो कंधों पर,
    यकीन करो कंधों के दुखने पर
    यकीन करो, यकीन करने पर
    यकीन न करने पर, यकीन करो । "
                                      -- कवि केदारनाथ सिंह
                                               ( हिन्दी )

       कभी-कभी यकींन करना बहुत ज़रूरी हो जाता है कि  लौटने वाले लौट आएंगे, कि लौटना इस दुनिया में प्रत्येक वस्तु की स्वभाविक प्रवृत्ति है और यकीन रखना हमारी जन्मजात प्रवृत्ति । इस बात पर यकीन रखना कि हम ज़िंदा है ' क ' के लिए। ' क ' ज़िंदा है ' त ' के लिए और  ' त ' ज़िंदा है ' स ' के लिए । ऐसे ही एक लम्बी चैन , एक लम्बी धारा, और अनंत तक जाने वाली कड़ियों से हम सब जुड़े है। इस यकीन के साथ कि एक दिन सब अच्छा हो जाऐगा । एक दिन सब के पास प्रेम होगा । सब और शांति होगी कि दुनिया की सभी जंगे एक दिन ख़त्म हो जाऐगी और लौट जाऐगें सभी सैनिक अपने-अपने घरो को । सीमाऐं, लोहे के तारो की जगह घासों में बदल दी जाऐगी। यकीन यह कि एक दिन किसी को अपनी देशभक्ति प्रमाणित करने के लिए इस यकीन के साथ नहीं जीना पड़ेगा कि मेरे खून का रंग इस देश की मिटटी से अलग है। ' यकीन ' की इसी विचारधारा का आईना है  फिल्म " ट्यूबलाइट " । कबीर खान द्वारा सलमान खान को लेकर बनाई गयी, अबतक की सबसे असरदार और यथार्थवर्दक फिल्म है। यह फिल्म भले ही सलमान के दर्शकों को खुश न कर पाई हो, एक हफ्ता में सौ करोड़ का आकड़ा न छू पाई हो किन्तु फिल्म ने अपना किरदार वर्तमान परिस्थियों के संदर्भ में बखूबी निभाया है।


इस फिल्म की दो खास विशेषताएं है। पहला, यह कोई प्रेम फॉर्मूला नहीं था जिसने सलमान के दर्शको को सिनेमा हॉल में निराशा के पोपकाॅन खाने के लिए मजबूर किया। दूसरा, फिल्म में जिन मुद्दों को उठाया गया है , वे भले ही हमारे दिलो दिमाग में हास्यप्रद प्रतीत होते हो लेकिन, है बड़े ही प्रासंगिक। क्योकि जिन मुद्दों को परदे पर उकेरा गया है वह बहुत ही संवेदनशील है और आप जानते होंगे कि इस देश में संवेदनशील कौन है - कांग्रेस , देशभक्ति और सेना और अल्पसंख्यक ।
 
       फिल्म में हमे उस व्यक्ति के आदर्शो से साक्षत्कार करने को मिलते है जिसने यकीन की ही ताकत के बल पर देश के युवको में क्रांति की आग को फैलाया था। फिल्म के दोनों मुख्य किरदार देश-पिता महात्मा गाँधी के आदर्शोंं के रूप में है। 'अ ' ट्यूबलाइट का पर्याय । ' स ' लैम्पपोस्ट का । 'अ' यकीन की ताकत से अपने भाई को लाने की, युद्ध के सम्पात होने की इतनी आशा, इतनी उम्मीद जगा लेता है कि सब उसे अवतार समझने लगते है। ' स ' लेम्पपोस्ट, गाँधी जी के देशभक्ति वाले एक दूसरे आदर्श का अक्स होता है जो युद्ध के समय देश की रक्षा हेतु सेना मैं भर्ती हो जाता है और देश सेवा के लिए तैयार हो जाता है।



फिल्म ऐसे ही कई पक्षों से संवाद कायम करने की कोशिश करती है। फिल्म हमे एहसास करती है कि कांग्रेस के पूज्ये नेता जवाहर लाल नेहरू एक स्तर पर आकर असक्षम साबित हो जाते है और असक्षम साबित हो जाती है उनकी सैन्य-उपकरण की विधियां। उनकी गुटनिरपेक्षता की जादुई चिड़िया असक्षम साबित होती है कि देश को उनकी वजह से अपने शरीर से अंगदान करना पड़ा था और आज की वर्तमान सरकार की सैन्य उपकरण तकनीकी अत्यधिक प्रभावशाली है। वह आतंकवादियों से लड़ती है सर्जिकल स्ट्राइक करती है और एहसास करती है कि हम सर्वोच्च है और हमारे सिवा कोई विकल्प नहीं। शायद इसलिए गत दो वर्षो से लगातार कांग्रेस की पृष्ट्भूमि पर आधारित सिनेमा की होड़ लगी है । कभी एमरजैंसी तो कभी भारत-पाकिस्तान तो कभी चीन-वॉर को लेकर सिनेमा बनाने का कांग्रेसी सूत्र इस्तेमाल किया जा रहा है। इसमें दो बातें हो सकती है।  एक, या तो निर्देशक वर्तमान सरकार को खुश करने के लिए ज़ोर दे रहे है या फिर सरकार के बखान करने का कोई नया तरीका हो सकता है। सन 75 , इन्दु सरकार, बादशाहो, गाज़ी अटैक और ट्यूबलाइट आदि ऐसे ही फिल्मो के कुछ उदाहरण है जो सिर्फ राजनीती का पर्याय ही स्पष्ट करते है।


फिल्म हमारी उन स्मृतियों के दरवाज़ों पर दस्तक देती है जिसे हम सुना नहीं चाहते है कि, सीमा पर रहना वाला जवान, सिर्फ एक जवान नहीं होता है, हाड़-मांस का टुकड़ा नहीं होता है । भावनाएँ ,एहसास उनमे भी होते है। उनमे भी चाह होती है कि वे केवल गिनती के दिन अपने घरो पर न बिताये । उनमेंं भी चाहत होती है कि वे भी किसी माँ का बेटा, किसी भाई का भाई, पत्नी का पति, किसी का पिता बने। अपने बच्चो को बड़ा होते देखे लेकिन देश के उन्मांद, कुछ लोगो के पागलपन के  कारण सारी यातनाऐं उन्हें ही झेलनी पड़ती है ताकि देश देश रहे , सीमा सीमा रहे। फिल्म सोचने पर मजबूर करती है कि जब पूरा देश तल्लीनता की नींद में सोता है तो हज़ारो मील ऊपर पहाड़ो पर, सर्द बर्फीली रातो में तिरंगे को उठाए सैनिक आसमान को निहारते हुए, क्या सोचते होगें ?  कि क्या हम सिर्फ इसी के लिए बने है ? जंग की गूंज सफ़ेद पत्थरो के अंदर से उठती है और निर्वासन हम झेलते है ? फिल्म सैनिको के अंदर छुपी उनकी व्यथा का पाट करती नज़र आती है।
   
      आज अल्पसंख्य समुदाय जिस तरह की प्रताड़ना का अधिकारी है और कुछ हाल में बीती घटनाओं ने, उसे और भी  प्रताड़ना का राजा बना दिया है और इतना संवेदनशील बना दिया है कि अब कोई छू भी दे, तो मामला सीधा हत्या का बनता है। फिल्म में ऐसे ही दो अल्पसंख्य किरदार होते है - ' ऊ ' और  ' इ ' । इनके दादा-परदादा कभी चीनवासी रहे थे किन्तु अब भारत ही इनकी जन्मस्थली होती है। चीनी भाषा वंशी होते हुए भी हिंदी उतनी ही अच्छी तरह बोलते है जितनी कि एक भारतीय बोल सकता है । मगर युद्ध छिढ़ते ही लोग उनके पीछे पड़ जाते है और वे कोलकाता से कुमाऊं में रहने लगते है जहाँ ' अ ' ट्यूबलाइट रहता है लेकिन वहाँ भी  हिंसा और देशभक्ति उनका पीछा नहीं छोड़ती है । उधर चीन की आंधी भारत की हवा पर भरी पड़ती है इधर लोगो का गुस्सा उन पर उतरने लगता है और मजबूरन उन्हें बीच चौराहे पर चीख-चीख कर कहना पड़ता है कि " हम भी भारतीय हूँ । हम भी भारत-माता की जय बोल सकते हैं । "


अब ज़रा आप सोचिए कि परिस्थितियाँ कुछ यूँ होती - युद्ध चीन की जगह पाकिस्तान से होता और वो परिवार मुस्लिम होता। तो आप कल्पना कर सकते है कि फिल्म में इस क्रिया पर पूरे देश की क्या प्रतिक्रिया होती ?
    इस मुददे को लेकर फिल्म अपना सार देती है कि यदि  आप किसी देश में अल्पसंख्यक है और आपके बहुसंख्यक वाले देश या आपके प्रिय देश से उसका युद्ध हो जाए और परिस्थितियाँ चीन- भारत युद्ध की तरह ही रहे तो आपको अपनी देशभक्ति को प्रमाणित करना ही होता है अब इसमें चाहे मुस्लिम हो, ईसाई हो, चीनी हो, सिख, जैन, बौद्ध आदि कोई भी हो, उसे प्रमाणित करना ही होगा कि मेरे खून का रंग भी देश की मिट्टी से मेल खाता है । मैं भी उतना ही भारतीय हूं जितना कि तुम। इसका दूसरा पक्ष यह कि फिल्म उन लोगो की ज़हनियत पर तैज़ाब छिड़कती है जो यह सोचते है, देशभक्ति, राष्ट्रनिर्माण और देश बचाओ का सारा ठेका देश के बहुसंख्यकों के ही ज़िम्मे है और जो सोचते है कि " भारत माता की जय " बोलने से यह प्रमाणित हो जाऐगा कि मैं, अमुख से सच्चा और बेहतर देशभक्त-जीव हूं । फिल्म ' ट्यूबलाइट ' इसी तरह के तर्क-वितर्क को लेकर एक ज़िंदा मिसाल है।






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