Sunday 25 June 2017

लाइफ इन ए मेट्रो : संवदेनऔ का कोलाज




अगर आप भी उदास और अकेले है तो देखिये " लाइफ इन ए मेट्रो "

     
       
 


                          ---  अहमद फहीम 

         
      हम उदास क्यों होते है ? सिर्फ इसलिए कि हम जीवन के किसी अँधेरे टापू पर आ चुके होते है ? या फिर ऐसे समुन्दर पर सवारी करने लगते है जहाँ सीमाओं का छोर अनंत होता है ? हम लहरो के भंवर में  पहाड़ बनते चले जाते है ? या हम वक़्त की किताब के कोरे पन्ने बनते चले जाते है जहाँ हमारा वजूद हमारा नहीं होता है। हम जो सोचते है वो स्वीकार तो करते है कि  हम सोच रहे है लेकिन क्या ऐसे होता है ? ऐसा क्यों नहीं होता है ? यही सवाल  इक्कीसवीं सदीं के  मेट्रो शहरों में  रहने वाले प्रत्येक आयु के  लोगो का है

         सपने इच्छाएं और लालसा और उनसे उपजी मानवीय-जीवन के  नए चलचित्रों की गाथा कहती हुई अनुराग बासु की फिल्म " लाइफ इन ए मेट्रो " महानगरों में  कच्ची पपड़ी की तरह सिमटी हुई ज़िंदगानियो का दस्तावेज़ी दर्शन प्रस्तुत करती है । फिल्म बताती है कि  महानगरों में  सपने , सपने नहीं होते है बल्कि एक सोचा समझा अग्रीमेंट होते है इसलिए कि इनके खोखले सपनों की बुनियाद मज़बूत तो बहुत होती हैं लेकिन उसको पूरा करने के  रस्ते केवल भीड़ बन जाना होता है । फिल्म बताती है कि  यहाँ रहने वाले हर आदमी को उदासी सामना , हर दो कदम करना पड़ता है और सारी उलझनों की जड़ यही है , इसी के  कारण यहाँ के लोगो का जीवन एक हंस की मांनिद हो जाता है । वैसे उदासी कोई बुरी बलां नहीं है अगर इसको बड़ी शिद्दत से महसूस किया जाये तो ये उदासी , उदासी नहीं रहती है जीवन का नया दर्शन बनकर उभरती है । नए सपने पुराने सपनो को अपना हम साया मन लेते है । एक नया सवेरा पुराने सवेरा को ऊष्मा देता है । प्प्लिइसलिए कि हम अपनी उदासी , अपनी वेदना, पीड़ा और अपने काले सायों को महसूस करना शुरू कर देते है।  फिल्म इससे भी कहीं ज़यादा कई अर्थो को ज़बान देने की कोशिश करती है।
         फिल्म की मूल संवेदना है कि  जब कोई हमसे हमारा अपना छूट  जाता है, कोई हमे अछा नहीं लगता है, यह मेरे लिए फिट नहीं है , यह मेरे लेवल का नहीं , इसके साथ  मैं खुश नहीं हूँ माँ, मैं  उसके साथ खुश हूँ क्योकि मुझे अपनी ज़िन्दगी कोई कोरे कागज़ की इबारत नहीं चाहिए , क्योकि मुझे जीवन जीने का सलीका कोई पुरानपंथी नहीं , नई दुनिया का नया फ्लेवर चाहिए। मैं एक स्त्री हूँ , मुझे अपना जीवन जीने की स्वतंत्रता का अधिकार चाहिए । क्योकि यह इन महानगरों की प्रवृत्ति है कि  सबको अपने हिसाब से जीना एक ढोंग होता है ।उस आईने को कोई नहीं तोड़ना चाहता हैं जिसमे वो अपना सफ़ेद सच देखते है, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है।" लाइफ इन ए  मेट्रो " इन्ही नन्हीं-नन्हीं संवदेनाओं का पुलिंदा है ।
         इस फिल्म के ज़रिये अनुराग बासु ने महानगरों की उस प्रवृत्ति को दिखाने की कोशिस की है जिसे हम या हमारा सभ्य समाज एक गल्प ही मानता है । वह है- प्रेम और सेक्स । पहले प्रेम किया जाये या सेक्स ? अगर सेक्स हो जाए तो क्या प्रेम हो सकता है ? और फिर प्रेम होने के क्या पैमाने है ? इस कायनात के यह दो सबसे हंसी मौंजूं है जिसे हमारा समाज सिर्फ महसूस करता है , स्वीकार नही करता । ये फिल्म ऐसे ही आठ लोगो की प्रेम से सेक्स और सेक्स से प्रेम तक की प्रक्रिया में उलझीं, उनकी दैनदिन की ज़िन्दगी को बड़ी ही सत्यता के  साथ प्रस्तुत करती है।

         फिल्म हर किरदार का एक समान मकसद होता है, वह है - सफलता पाना । सफलता कैसी ? इसका कोई पैमान नहीं । सफलता उसके कैरियर की , कैरियर में मदद करने वाले साधन यानी अपने से उच्च अधिकारियो के साथ सहवास में फलता , प्रेम में सफल होने की, वैवाहिक जीवन से काले साओं को हटाने की सफलता। इन सफलताओं के  पीछे की सारी कुंठाये हर किरदार की ज़िन्दगी में  है , भले ही उनकी परिस्थितया अलग क्यों न हो लेकिन मूल सबका यही है कि  अच्छी नौकरी, खूब पैसा, खूबसूरत सा प्रेम और अपनी कुंठाऔं से मुकत होने के लिए सुकून सा संम्भोग ।
       आठ किरदारों के बीच उफनती हुई छ गाथाएं आज के महानगरों की पेचीदा ज़िन्दगी को दिखने में पूरी तरह सक्षम है। सभी कहानियां आपस में समानांतर चलती है । हर किरदार एक दूसरे से कहीं न कहीं जुड़ा हुआ है ।एक किरदार की ज़रूरत कोई तीसरा पूरी करता है और दूसरा तीसरे की कुंठाऔं को अपने ऊपर ढोता है। चौथा पहले की वजह से संतुष्ट नहीं और वो अपनी ख़ुशी किसी छटे में तलाशता है तो पांचवा समझ ही नहीं पता कि  असल ख़ुशी क्या है ? घर से दूर रहकर नौकरी, पैसा, या फिर सही प्रेम की तलाश क्योकि उसे शादी जैसा सुनहरा सफर शुरू करना होता है किन्तु नहीं, उसे जब भी मिलती है तो बस, तलाश जारी रखने के कुछ और प्रयास । दो किरदार और है। विवाहित ।एक बच्चा। लड़की के  पास वो सब कुछ होता है जो वो शादी से पहले सोचती थी । अपना घर । आज़ादी।  पैसा और माँ बनने का सुख । लड़के के  भी सभी अरमान पूरे होते है। टाइम पर खाना , बच्चे की देख भाल और रोज़ रात को सेक्स किन्तु दोनों में  अगर कुछ नहीं होता है तो वह है - विश्वास । जब वो विश्वास को खोजते है तो विश्वास अपनी कुंठाओं से मुक्त होने के लिए कहीं ओर आत्मसमर्पित हो जाता है, क्योकि कोई रिश्ता तब तक ही रिश्ता रहता हैं, जब तक की उनकी तन्हाई उनका साथ न छोड़ दे और जब तन्हाई ही आपस में  लड़ना शुरू कर दे तो, '' तो " का अर्थ होता है - किसी नए की तलाश ।
      इस तरह फिल्म इन किरदारों की मनोवैज्ञानिक-मनोदशा से वो कोलाज दर्शकों के सामने रखता है जहाँ वे महसूस करने लगते है कि  इस पूरी कायनात में कोई अकेला नहीं होता। हर आदमी किसी की ज़रूरत होता है। उम्र भले ही कौन-सी हो, अगर आप अकेले होते है तो अपनी ही तन्हाई से, इसलिए कि आप मानने लगते है कि  अब मेरा जीवन व्यर्थ है। अब मैं ख़त्म हो चुका हूँ या हो चुकी हूँ । दुखी रहना ही हमारी प्रवृत्ति हो जाती है लेकिन यह तब तक ही रहता जब तक कि आपको कोई ऐसा शख्स नहीं मिल जाता जो आपको आपसे मिलवायें ।आपके डर को छूमंतर कर दे । ऐसा ही एक किरदार और होता है जो बताता है  कि  मेरी जान तुम्हारे अंदर जितनी भी कुंठाये है, जितने भी वलवले है। सबको बारी -बारी से महसूस करो और इतना करो कि  यह तुम्हारे जीवन का हिस्सा बन जाये और फिर अपने दिल से कहना - " मेरी जान एक मौका और देके देख , एक चांस देकर देख, मैं सच कहता हूँ कि कुछ हो न हो लेकिन इतना ज़रूर होगा कि  जीवन के गलियारों में नई आवाज़े तुम्हे पुकारेगी । फ़िज़ा का रंग बदलेगा, क्योंकि इस दनदनातें शहरों में जीने का सिर्फ एक यही तरीका है और कुछ नहीं "
       यह फिल्म कुछ न सही तो एक आस जगाती है । फिर से जी उठने की, जीवन के इन्द्रधनुष में रंग भरने कि यह एहसास कराने कि हम जिन्दा हैं।

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