Saturday 17 June 2017

शिक्षा मेरे लिए अवसाद का एक प्याला

शिक्षा मेरे लिए अवसाद का एक प्याला

                                 -" फहीम "





 
" सौ सुनार की एक लौहार की " कहावत बचपन में सुनी थी जिसे न समझा था और नहीं वो समझ में आई थी लेकिन पता नहीं कैसे जौक की तरह मुझसे आ लिपटी | एक गलती  हुई और सौ सुनार की हो गई | एक गलती ने मेरी आधी से अभी अधिक गलतियों को जन्मा | एक गलती ने आज मेरे भविष्य को किसी अँधेरे टापू पर अवसाद के  समुन्द्र पर छोड़ दिया हैं , जहाँ पहले-पहल अवसाद के इस टापू पर आना एक भावनात्मक क्रिया थी , वहीँ इसमें अब गोते लगाना एक राजनितिक षड्यंत्र का नतीजा हो गई |  मेरी इस एक गलती का नाम है -  शिक्षा | 




जी  हाँ, शिक्षा - सफ़ेद कुर्सी प्राप्त  करने की सांस्कृतिक कला और आम आदमी के  लिए आलादीन का चिराग | घिसा नहीं कि आपकी झोपड़-पट्टी से महल बनकर तैयार | लेकिन मुझे जिस चिराग को घिसने क लिए दिया गया वो किस ज़माने का था मुझे मालूम ही नहीं | सत्ता के पेशेवर कारीगरों ने किस तरकीब से उसका अविष्कार किया था कि कीमत भी अदा हो जाये और बाजार का माल  बाजार में ही रहे | खैर , बात जो भी रही हो मेरी इस गलती की कार्यवाही उस वर्ष हुई जब मेरा सिन सोलह का था और मैने हाई स्कूल की परीक्षा दूसरी बार में  दिवतीय  श्रेणी  में  पास की थी | फिर भी  सब खुश थे | मेरे मोहल्ले के  कायदे अनुसार अब्बू मेरी पढ़ाई  जारी रखने के  पक्ष  में  नहीं थे और भैया कहते थे कि में पढूं | चाहता में  भी था कि  पढूं |  अब मैं करता भी क्या , घुंगरू का  कार्य  होता है  - बजना और मैं  बजता रहा  |  
बारहवीं के बाद मेरा जो खुद का यूटोपिया बना था , बड़ा ही कमाल  का था | बाहर  शहर में  जाकर पढ़ना और पढ़ लिखकर एक अच्छी सी नौकरी और एक खूबसरत सी लड़की और खूब पैसा और एक अच्छा सा घर | मगर जब बाहर आया तो सपना छोड़ो , खुद को बचाना कोहे तूर के  सामने खड़े होने क बराबर हो गया | फिर धीरे -धीरे मेरी सुविधा अनुसार शहर की दमक मुझे खाने  लगी और अब तक खा रही है , मगर मैं अब भी उलझन में  हूँ कि  सही क्या था ? भैया या अब्बू ? या फिर मेरे वो सरे दोस्त जो आज नौकरी-दा हो गए है और मैं आज भी एक निरहा बुद्धू !




लेकिन आज मैं अब्बा का सबक बड़ी ही शिद्दत क साथ दोहराने लगा हूँ | वो काम अच्छा था | न भैया फॉर्म लाते , न मैं फॉर्म भरता | अब्बू की बात मान काम सीखता रहता और दो-तीन साल में  ही अच्छा कारीगर बन जाता | पैसे आने लगते | फिर मैं चला जाता सऊदी | तीन-चार साल रहकर एक  मुश्त रकम इकट्ठा कर लाता | अब्बू को देता और वह दादी का इलाज करते और वह ठीक हालत में  कुछ और दिन ज़िंदा रहती | घर बनता और फिर जिसे चाहा था उसी से शादी भी हो जाती | और देश से एक और बेरोज़गार कम हो जाता | आज मैं अपने घर होता और अब्बा-अम्मा की सेवा करता  |  






आज मैं जो इस समाज के  पीछे पड़ा रहता हूँ , मैं भी इसी समाज में  होता |  चुप्पी साधे लोगो की तरह सुन रहा होता | दुनिया की टेंशन  न होती  | साहित्ये , इतिहास, रंगमंच चाँद पर जाने  जैसी बाते होती | मैं फिर धर्म  को यूँ न कहता | लोगो से यह न कहता कि  नहीं..नहीं.. हम सब क पीछे एक साया हमेशा छुरा  लिए रहता है | हमारी इस दुनिया में एक दुनिया और साथ रहती है | हम सबकी बेकारी  और जीवन से झूझने का कारण हमारे बाप -दादाओ का गरीब होना या असफल होना नहीं , एक राजनितिक रहस्य है यानि कि इस देश में जो गरीब है , असफल है , वो इसलिए असफल और गरीब नहीं कि  उनके पुरखे ऐसे थे बल्कि देश की सरकारे  चाहती है कि हम सब ऐसे ही रहे | .... .....  ...... ...... सच मैं यह सब बिलकुल भी नहीं कहता , अगर ये एक गलती न हुई होती |
  
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